थाइराइड ग्रंथि के हार्मोन के असंतुलित स्राव से शरीर की समस्त भीतरी कार्यप्रणालियां अव्यवस्थित हो जाती हैं। इसे साइलेंट किलर भी कहा जाता है, जो कि वंशानुगत भी हो सकती है। थाइराइड ग्रंथि के ठीक से काम न करने पर यह कई रोगों का कारण बन जाती है। भारत में 4 करोड़ से अधिक थाइराइड के मरीज हैं, इनमें से 90 प्रतिशत यह नहीं जानते कि उन्हें थाइराइड की बीमारी है। स्थिति यह है कि हर 10 थाइराइड मरीजों में से 8 महिलाएं ही होती हैं। इन महिलाओं को मोटापा, तनाव, अवसाद, बांझपन, कोलेस्ट्रॉल, आस्टियोपोरोसिस जैसी परेशानियां होती हैं पर ये महिलाएं यह नहीं जानर्ती कि उनकी इन परेशानियों के पीछे थाइराइड की बीमारी है। आयुर्वेदीय चिकित्सा पद्धति से इस जटिल रोग का शमन संभव है।
थाइराइड ग्रंथि तितली के आकार की, गहरे लाल रंग की, 15 से 25 ग्राम के वजन वाली, गले में स्थित होती है। यह सामान्यतः दिखाई नहीं देती और आसानी से महसूस भी नहीं होती। थाइराइड ग्रंथि कार्टिलेज के नीचे लगी होती है, जो ट्रेकिया (श्वास नली) के ऊपर होता है। इस ग्रंथि के 2 खंड होते हैं। इस जोड़ को इस्थमस (Isthmus) कहते हैं। थाइराइड ग्रंथि को अवटु ग्रंथि या चुल्लिका ग्रंथि भी कहते हैं।
हमारे शरीर में कुछ ग्रंथियां नलिकाविहीन डक्टलेस (Ductless) होती हैं, जिनके द्वारा निकलने वाला स्राव सीधे रक्त में मिलकर शरीर में परिसंचरित होता है। इसे अंतःस्रावी ग्रंथि और निकलने वाले स्राव को हार्मोन कहते हैं। यह हार्मोन शरीर में प्रमुख कार्य करते हैं। थाइराइड ग्रंथि भी अंतःस्रावी ग्रंथि है व इससे 2 प्रकार के हार्मोन का स्राव होता है। T3 (ट्राइआइडो थाइरोनिन) एवं T4 (थाइरॉक्सिन)। दोनों में आयोडीन के क्रमशः 3 व 4 परमाणु होते हैं। ये दोनों स्राव धातुपाक (चयापचय) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन दोनों पर मस्तिष्क स्थित एंटीरियर पिट्यूटरी ग्लैंड (Anterior Pituitary Gland) का नियंत्रण होता है। इस से निकलने वाले स्राव को TSH (थाइराइड स्टिम्यूलेटिंग हार्मोन) कहते हैं और इस पर भी मस्तिष्क स्थित हाइपोथैलेमस से उत्पन्न अंतःस्राव का प्रभाव पड़ता है अर्थात् TSH के द्वारा ही थाइराइड के T3 व T4, कोलाइड्स से अलग होकर रक्त में मिलते हैं। T3 हार्मोन शरीर की कोशिकाओं की चयापचय गति में तुरंत वृद्धि करता है, जबकि, की क्रिया देर से संपन्न होती है। लेकिन दोनों के कार्य समान होते हैं।
थाइराइड ग्रंथि से एक अन्य स्राव भी निकलता है, जिसे कैलिस्टोनीन (Calcitonin) कहते हैं। यह पैराथायराइड (थाइराइड के पीछे स्थित) के विपरीत कार्य करता है। यह हड्डियों से कैल्शियम के अवशोषण को रोकता है अर्थात् रक्तगत कैल्शियम को कम करता है। इसके अलावा यह हृदय, मांसपेशियों, हड्डियों व कोलेस्ट्रॉल को भी प्रभावित करता है। थाइराइड हार्मोन्स के निर्माण में आयोडीन की आवश्यकता होती है। अतः मनुष्य के शरीर में आयोडीन की कमी होने पर T3 व T4 संतुलन बिगड़ने से थाइराइड की विकृति होती है।
विभिन्न कार्य
- यह ग्रंथि शरीर में ऊर्जा की उत्पत्ति को बढ़ावा देती है, जिससे शरीर में ऑक्सीजन की जरूरत बढ़ जाती है तथा ऊतकों की चयापचय क्रिया को बल मिलता है। आधारी चयापचय दर (BMR) को भी बल मिलता है। यदि हार्मोन्स की स्थिति सामान्य है, तो क्रियाएं भी सामान्य रूप से होती रहती हैं।
- बच्चों के विकास में थाइराइड ग्रंथि का विशेष योगदान होता है। शरीर की सामान्य वृद्धि, कंकाल की वृद्धि, लैंगिक परिपक्वता तथा मानसिक विकास को यह ग्रंथि प्रभावित करती है।
- यह शरीर में कैल्शियम व फास्फोरस को पचाने में मदद करती है।
- सीरम में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा को नियंत्रित करती है।
- इसके द्वारा शरीर के ताप को नियंत्रित किया जाता है।
- राइबोनियुक्लिक अम्ल (RNA) तथा प्रोटीन संश्लेषण (Protein Synthesis) को बढ़ाती है।
- यह ग्रंथि रक्त में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ाती है, आंत्र द्वारा ग्लूकोज के अवशोषण को उत्तेजित तथा प्रोटीन तथा वसा से ग्लूकोज के निर्माण में सहायता करती है। यकृत तथा हृदयपेशी की ग्लाइकोजन को ग्लूकोज में परिवर्तित होने में मदद करती है।
- शरीर से दूषित पदार्थों को बाहर निकालने में सहायता करती है।
- त्वचा व केशों को स्वस्थ बनाए रखने में इसका महत्वपूर्ण योगदान है।
विकृति के प्रकार
थाइराइड ग्रंथि की वृद्धि व क्षय की अवस्था एवं अतःस्राव का कम या अधिक होना अलग-अलग अवस्था है। थाइराइड ग्रंथि से उत्पन्न हार्मोन की अधिकता को हाइपरथाइराडिज़म (Hyperthyroidism) एवं हार्मोन की कमी को हाइपोथाइराडिजम (Hypothyroidism) कहते हैं। ग्रंथि की वृद्धि को गलगण्ड या गॉईटर कहते हैं।
हाइपरथाइराइडिजम (Hyperthyroidism)
इसमें थाइराइड ग्रंथि बहुत ज्यादा संक्रिय हो जाती है और T3, T4 हार्मोन अधिक मात्रा में निकलकर रक्त में घुलनशील हो जाते हैं। थाइराइड ग्रंथि की स्वयं की क्रियाशीलता में वृद्धि के कारण या अवटु प्रेरक हार्मोन (TSH) की अधिकता के कारण थाइराइड की उत्पत्ति बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में आधार चयापचय दर (BMR) बढ़ जाने से शरीर का तापमान बढ़ जाता है।
ऑक्सीजन की आवश्यकता अधिक हो जाती है तथा कार्बन डाइआक्साइड की उत्पत्ति बढ़ जाती है, हृदय गति, श्वसन दर एवं ब्लडप्रेशर बढ़ता है, पसीना अधिक आता है तथा कम्पन होने लगते हैं। इस स्थिति में शरीर के ऊतकों में ज्यादा मात्रा में थाइराइड हार्मोन फैल जाते हैं। इसमें आदमी का शरीर बहुत एनर्जेटिक हो जाता है और सामान्य व्यक्ति की तुलना में ज्यादा उत्साहित अनुभव करता है। दिमाग आसानी से परेशान और चिड़चिड़ा हो जाता है। इस बीमारी की स्थिति में वजन अचानक कम हो जाता है। ये रोगी गर्मी सहन नहीं कर पाते।
इनकी भूख में वृद्धि होती है और दुबले नजर आते हैं, मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं, निराशा हावी हो जाती है और आंखें उनींदी (Protruding) रहकर घूरती हुई प्रतीत होती हैं। इनकी धड़कन बढ़ जाती है, नींद नहीं आती, दस्त होते हैं तथा प्रजनन प्रभावित होता है। साथ ही मासिक रक्तस्राव कम एवं अनियमित हो जाता है, गर्भपात के मामले सामने आते हैं, मधुमेह रोग होने की प्रबल संभावना रहती है, आंखों के पास धब्बे (Pigmentation), शरीर में आयोडीन की कमी हो जाती है, नर्वसनेस, कमजोरी या थकान महसूस होती है, बाल झड़ने की समस्या होती है, त्वचा में खुजली व लालिमा होती है व नाखून कमजोर हो जाते हैं।
कारण
ग्रेव्ज रोग (Grave’s Disease) – हाइपरथाइराइडिज़म की मुख्य वजह है। इसमें थाइराइड ग्रंथि से थाइराइड हार्मोंस का स्राव बहुत अधिक बढ़ जाता है।
बिनाइन (Benign) – अर्थात् नॉनकैंसर थाइराइड ट्यूमर, जो कि अनियंत्रित ढंग से थाइराइड हार्मोंस की बढ़ी हुई मात्रा को निकालता है।
विषाक्त मल्टीनोडूलर गण्डमाला (गोइटर) – ऐसी अवस्था है, जिसके कारण थाइराइड ग्रंथि कई बिनाइन (नॉनकैंसर) थाइराइड ट्यूमर की वजह से बड़ी हो जाती है और थाइराइड हार्मोंस के स्राव की मात्रा को बढ़ा देती है।
आयुर्वेदानुसार चिकित्सा
- हाइपरथाइराइड की अवस्था में वात पित्ताधिक्य के लक्षण मिलते हैं। अतः इसमें शतावरी, आरोग्यवर्धिनी, प्रवाल पंचामृत एवं शंख वटी का प्रयोग उत्तम फलदायक होता है। इसके साथ ही निम्न औषधीय योग प्रभावशाली हैं
- अश्वगंधा, शतावरी, आंवला, शंखपुष्पी और गिलोय का प्रयोग हितकर है।
- चंद्रप्रभा वटी, सूतशेखर रस, कामदुधा रस, प्रवाल पिष्टी एवं अविपत्तिकर चूर्ण का प्रयोग लक्षणों के आधार पर विशेष लाभकर है।
- गिलोय सत्व का 250mg से 500mg की मात्रा में लेने से लाभ मिलता है।
- कांकायन वटी व आरोग्य वर्धिनी वटी दिन में 3 बार लें।
- शिलाजत्वादि लौह सुबह-शाम पिप्पल्यासव के साथ ले।
- प्रवाल पंचामृत 250mg की मात्रा में नारियल पानी के साथ प्रातः सायं सेवन करना हितकर होगा।
- आमलकी रसायन का प्रयोग भी लाभप्रद है।
- ब्राह्मी, जटामांसी, शंखपुष्पी, वचा, तगर, और धमासा का लंबे समय तक प्रयोग करना चाहिए। इससे लाभ मिलता है।
हाइपोथाइराडिज़म (Hypothyroidism)
शरीर में थाइराइड ग्रंथि के हार्मोन की कमी हो जाए तो इसका कारण थाइराइड की क्रियाशीलता में कमी होना या उसका नष्ट हो जाना है अथवा ऑपरेशन द्वारा उसे निकाल दिया जाना है। इस बीमारी में थाइराइड ग्रंथि सक्रिय नहीं होती, जिससे शरीर में आवश्यकता के अनुसार T3 व T4 हार्मोन नहीं पहुंच पाते हैं।
सामान्यतः यह रोग स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा अधिक मिलता है। थाइराइड हार्मोन की कमी से शरीर की चयापचय क्रियाएं मंद हो जाती हैं। आधार चयापचय दर (BMR) सामान्य से कम हो जाती है, जिस कारण शरीर का तापमान कम हो जाता है। हृदय गति एवं श्वास गति भी कम हो जाती है। रक्त सीरम में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा बढ़ जाती है, शरीर का वजन बढ़ जाता है, मांसपेशियों में थकावट रहती है, मानसिक तथा शारीरिक कार्य धीरे होने लगते हैं, आलस्य रहता है, बाल अधिक झड़ते हैं, मासिक धर्म में गड़बड़ी बढ़ जाती है, त्वचा रूखी रहती है तथा अधिक ठंड लगती है। वजन में अचानक वृद्धि हो जाती है, रोजाना की गतिविधियों में रुचि कम हो जाती है, पसीना कम आता है, कब्ज होने लगती है, आंखें सूज जाती हैं, मासिक चक्र अनियमित हो जाता है, त्वचा सूखी व बाल बेजान होकर झड़ने लगते हैं, सुस्ती महसूस होती है।
अन्य लक्षण
रोगी के पैरों में सूजन व ऐंठन की शिकायत होती है, कार्यक्षमता कम हो जाती है, रोगी तनाव व अवसाद से घिर जाते हैं और बात-बात में भावुक हो जाते हैं और चलने में दिक्क्त होती है। इनकी मांसपेशियों में भी पानी भर जाता है, जिससे चलते-चलते हल्का दर्द पूरे शरीर में होता है। चेहरा सूज जाता है और आवाज रूखी व भारी हो जाती है। यह परेशानी 30 से 60 साल की महिलाओं को अधिक होती है। इसमें कोलेस्ट्रॉल का स्तर बढ़ जाता है। एस्ट्रोजन हार्मोन अधिक सक्रिय हो जाता है। ऐसे लोगों को संक्रमण, दिल की बीमारी और कैंसर होने की आशंका अधिक होती है।
पुरुषों में नपुंसकता हो जाती है। यदि जन्म के समय थाइरॉक्सिन की कमी है तो शरीर की वृद्धि प्रभावित होती है। शिशु बौना रह जाता है, अस्थि कंकाल छोटा रहता है. अस्थियां तथा दांत विद्रूप होते हैं, पेट आगे निकल आता है तथा लैंगिक लक्षणों का विकास मंद हो जाता है, मानसिक वृद्धि भी मंद हो जाती है व शिशु कुरूप दिखता है। इसके अलावा कब्ज, आवाज भारी, जीभ मोटी होती है। तरुणावस्था या बड़े बच्चों में थाइरोक्सिन की कमी के कारण मिक्सीडीमा (Myxoedema) रोग होता है। मोटापा, हाइट न बढ़ना, पढ़ाई में कमजोरी, किशोर अवस्था देर से आना या न आना जैसे लक्षण होते हैं।
इससे बचने के लिए विटामिन बी 6, विटामिन बी-12, खनिज और प्रोटीनयुक्त आहार का सेवन करना चाहिए।
कारण
- दवाएं जैसे लिथियम कार्बोनेट।
- आनुवंशिक कारण।
- शरीर में आयोडीन का कम स्तर।
- पिट्यूटरी ग्रंथि और हाइपोथेलेमस में गड़बड़ी।
- वायरल और बैक्टीरियल संक्रमण के कारण।
चिकित्सा
- आयुर्वेद के सिद्धांत के अनुसार हाइपोथाइराइड में दीपन चिकित्सा करनी चाहिए। इसमें वर्धमान पिप्पली का प्रयोग उत्कृष्ट लाभकर है।
- वातानुलोमन तथा मृदु विरेचन एवं भेदन कार्य हेतु रोगी व रोग देखकर हिंग्वाष्टक, अमलतास या कुटकी का प्रयोग किया जाता है।
- मेदहरण चिकित्सा के क्रम में रूक्ष व उष्ण अन्नपान, बस्ति एवं अभ्यंग कराया जाता है। इसमें प्रातः खाली पेट विडंग चूर्ण 2 ग्राम की मात्रा में गरम जल के साथ दिया जाता है तथा प्रति सप्ताह 1-1 ग्राम मात्रा बढ़ा दी जाती है। यह मात्रा 5 ग्राम होने पर इसे पुनः 1-1 ग्राम कम करके 2 ग्राम पर लाया जाता है तथा बाद में थोड़ा सेंधा नमक मुंह में रखकर चूसने को दिया जाता है। यदि रोगी खाली विडंग न ले पाए तो विडंगादि लौह का प्रयोग शहद के साथ कराने से भी पूरा लाभ मिलता है।
- गोक्षुर व पुनर्नवा वनौषधि का प्रयोग लाभकारी है।
- महायोगराज गुग्गुल 2-2 अश्वगंधारिष्ट के साथ लेने से लाभ होता है।
- त्रिफला गुग्गुल एवं शिलाजतु के योग जैसे-चंद्रप्रभा वटी का प्रयोग भी लाभकर है। कांचनार क्षार, वासा क्षार का प्रयोग भी इस रोग में फायदेमंद है। अखरोट के पेड़ की छाल की दातुन भी इसमें हितकारी है।
गलगण्ड (Goitre)
गलगण्ड को सामान्य भाषा में घेघा कहते हैं। थाइराइड ग्रंथि के सामान्य से बड़ा होने को गलगण्ड या घेघा कहते है। चरक के अनुसार गले के पार्श्व भाग में एक शोथ (सूजन) होता है, जिसे गलगण्ड कहते हैं। वायु तथा कफ दूषित होकर मांस तथा मेद को भी दूषित करगलगण्ड उत्पन्न करते हैं।
आधुनिक मतानुसार आयोडीन की कमी से थाइराइड ग्रंथि में अतिविकसन (Hyperplasia or Diffuse Epithelial Hyperplasia) होकर प्रत्यावर्तन (Involution) हो जाता है। जिससे इस ग्रंथि में तरल (Fluid) भरकर गलगण्ड उत्पन्न होता है। हाइपोथाइराडिज़म के कारण गलगण्ड होता है।
उत्पत्ति
गलगण्ड रोग विशेषतः जिन क्षेत्रों से पानी व जमीन में आयोडीन की कमी होती है, जैसे-पर्वतीय क्षेत्र या तराई क्षेत्र में अधिक उत्पन्न होता है। स्त्रियों में वयस्क अवस्था के प्रारंभ में गर्भाधान अवस्था में एवं रजोनिवृत्ति काल में आयोडीन की कमी आ जाने से गलगण्ड उत्पन्न होता है।
पुरुषों में भी वयस्क अवस्था में यह रोग हो जाता है। आयोडीन शरीर एवं मस्तिष्क के विकास के लिए आवश्यक होता है। आयोडीन हमें भोजन एवं पानी द्वारा प्राप्त होता है। शरीर को प्रतिदिन लगभग 40-150 माइक्रोग्राम आयोडीन की आवश्यकता होती है। पीने के पानी में फ्लोराइड की अधिकता से या पशुओं के मल द्वारा पानी के दूषित होने पर भी यह रोग होता है।
गॉइटर बनने के कुछ अन्य कारण होते हैं जैसे- ग्रेव्ज डिजीज, कुछ दवाएं, थाइराइडिटिस एवं थाइराइड कैंसर। लंबे समय तक पड़े रहने पर कई बार गांठें आ जाती हैं, जिससे थाइरोटोक्जीकोसिस हो सकता है। यह रोग चिंता, शोक, भय की अधिकता से उष्ण देशों में अधिक होता है।
वातज, कफज पदार्थों के अधिक सेवन करने और पक्वाशय के सही कार्य न करने से गलगण्ड रोग हो सकता है। वायु, कफ तथा मेद दूषित होकर अपने लक्षणों से युक्त धीरे-धीरे बढ़ने वाले गण्ड (गांठ) को गले में उत्पन्न करते है, जिससे यह उत्पन्न होता है।
लक्षण
गलगण्ड में मुख्यतः गले में शोथ रहता है। यह छोटी- छोटी ग्रंथियों से युक्त भी हो सकता है। यह मुख्यतः 3 प्रकार का होता है-वातज, कफज एवं मेदज। गलगण्ड में पाक नहीं होता, पित्तज गलगण्ड नहीं होता है क्योंकि पित्त के कारण ही पाक होता है।
चिकित्सा
आयुर्वेद में दोषों के अनुसार चिकित्सा की जाती है। उसके पूर्व प्रकृति परीक्षण आवश्यक है।
- दशमूल, त्रिफला, कांचनार, खदिर, ताम्र भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, यशद भस्म, प्रवाल भस्म, लोध, मुंडी, जलकुंभी, वरुण आदि लाभकारी औषधियां हैं।
- कांचनार गुग्गुल व गण्डमाला कन्डन, थायराइड विकार की मुख्य औषधि है। साथ में आरोग्यवर्धिनी वटी के सेवन से हार्मोन संतुलित होता है।
- गलगण्ड में कांचनार त्वक, लोध्र तथा वरुणत्वक का लेप लाभदायक है।
- इस रोग में दशांग लेप का प्रयोग हितकारी है।
- तुम्बी तेल या गुंजा तेल से अभ्यंग करना चाहिए।
- त्रिकटु चूर्ण शहद के साथ लेना लाभकारी है।
- थाइराइड विकार में पंचलवण तथा तिल के तेल का प्रयोग लाभदायी है।
- सरसो, सहजना, सन, अलसी और मूली के बीज को शिला पर खट्टी छाछ में पीसकर गलगण्ड या कण्ठमाला पर लगाने से आराम पड़ता है।
- गलगण्ड रोग में औषधि चिकित्सा से लाभ न होने पर शल्य चिकित्सा करवानी चाहिए।
परीक्षण
थाइराइड के कई परीक्षण है जैसे रक्त में T3, T4, तथा TSH। इन परीक्षणों से थाइराइड ग्रंथि की स्थिती का पता चलता है। सोनोग्राफी से भी इसके रोगों का निदान होता है। कई बार थाइराइड ग्रंथि में कोई रोग नहीं होता, लेकिन पिट्यूटरी ग्लैंड के ठीक तरह से काम नहीं करने के कारण थाइराइड ग्रंथि को उत्तेजित करने वाले हार्मोन्स TSH (Thyroid Stimulating Hormones) ठीक से प्रकार से नहीं बनते और थाइराइड से होने वाले लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं।
सामान्य उपचार
थाइराइड से संबंधित मामले अक्सर सामने आते हैं. लेकिन यह बीमारी अब लाइलाज नहीं है बशर्ते सही समय पर इसकी जांच करा ली जाए। कई बार उपचार के बाद भी यह बीमारी पूरी तरह ठीक नहीं होती। इसलिए एक बार इसका उपचार करवाने के बाद भी समय-समय पर इसकी जांच करवानी पड़ती है। अच्छी बात यह है कि ज्यादातर मामलों में इनका इलाज संभव है।
- योग के द्वारा भी थाइराइड से बचा जा सकता है विशेषतः कपालभाति करने से थाइराइड की समस्या से निजात पाई जा सकती है।
- अधिकांश रुग्णों में थाइराइड या इसके संक्रमित भाग को निकालने की शल्यक्रिया की जाती है। बाद में बची हुई कोशिकाओं को नष्ट करने या दोबारा इस समस्या के होने पर रेडियोएक्टिव आयोडीन उपचार किया जाता है।
- थाइराइड को सर्जरी के माध्यम से हटाते हैं और उसकी जगह मरीज को हमेशा थाइराइड रिप्लेसमेंट हार्मोन लेना पड़ता है। कई बार केवल उन गांठों को भी हटाया जाता है, जिनमें कैंसर मौजूद है। दोबारा होने पर रेडियोएक्टिव आयोडीन उपचार के तहत आयोडीन की मात्रा से उपचार किया जाता है।
- सर्जरी के बाद रेडियोएक्टिव आयोडीन की खुराक मरीज के लिए बहुत जरूरी है क्योंकि यह कैंसर की सूक्ष्म कोशिकाओं को मार देती है।
लाभकारी आहार
थाइराइड ग्रंथि का कार्य ठीक प्रकार से चलता रहे, इसमें आहार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। थाइराइड रोगों से बचने के लिए विटामिन, प्रोटीनयुक्त और फाइबरयुक्त आहार का ज्यादा मात्रा में सेवन करना चाहिए। आयोडीन प्रधानता वाले खाद्य पदार्थ लें। रुग्णों को डॉक्टर के परामर्शानुसार अपना डाइट प्लान करना चाहिए।
मछली – ग्रीन सी फुड प्राकृतिक आयोडीन का अच्छा स्रोत है। वास्तविक मछली शोरबा विशेष रूप से पौष्टिक और थाइराइड के लिए बहुत अच्छा होता है। आम मछलियों की तुलना में समुद्री मछलियों में आयोडीन अधिक होता है। इसलिए समुद्री मछलियां जैसे- सेलफिश और झींगा खाना चाहिए। इसमें ज्यादा मात्रा में ओमेगा-3 फैटी एसिड पाया जाता है।
साबुत अनाज – आटा या पिसे हुए अनाज में ज्यादा मात्रा में विटामिन, प्रोटीन और फाइबर होता है। अनाज में विटामिन-बी और अन्य पोषक तत्व मौजूद होते हैं। इनके सेवन से शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। पुराना भूरा चावल, जंगली चावल, जई, जौ, बरेड़, पास्ता और पापकॉर्न खाना चाहिए।
दूध और दही – थाइराइड के मरीज को दूध तथा उससे बने खाद्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए। दूध और दही में पर्याप्त मात्रा में विटामिन, मिनरल्स और अन्य पोषक तत्व पाए जाते हैं। दही में पाए जाने वाले स्वस्थ बैक्टीरिया (पिरोबायोटिस) शरीर के इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाते हैं। पिरोबायोटिस थाइराइड रोगियों में गैस्ट्रोइंटेस्टिनल फ्लोरा को स्वस्थ बनाए रखने में मदद करता है।
फल और सब्जियां – फल और सब्जियां एंटीऑक्सीडेंट्स का प्राथमिक स्रोत होती हैं, जो कि शरीर को रोगों से लड़ने में सहायता प्रदान करते हैं। सब्जियों में पाया जाने वाला फाइबर पाचनक्रिया को मजबूत करता है। हरी और पत्तेदार सब्जियां थाइराइड ग्रंथि की क्रियाओं के लिए अच्छी होती हैं। हाइपरथाइराइडिजम हड्डियों को पतला और कमजोर बनाता है, इसलिए हरी और पत्तेदार सब्जियों का सेवन करना चाहिए। इसमें विटामिन-डी और कैल्शियम होता है, जो हड्डियों को मजबूत बनाता है। लाल और हरी मिर्च, टमाटर खाने में शरीर के अंदर ज्यादा मात्रा में एंटीआक्सीडेंट्स जाते हैं। अतः थाइराइड के रोगी को फलों और हरी सब्जियों का सेवन अधिक करना चाहिए।
आयोडीन – रोगी को आयोडीनयुक्त भोजन का सेवन करना चाहिए। आयोडीन थाइराइड ग्रंथि के दुष्प्रभाव को कम करता है। आधुनिक मतानुसार इस रोग की रोकथाम के लिए आयोडाइज्ड नमक प्रयोग करने की सलाह दी जाती है। साधारण नमक में आयोडीन (पोटेशियम आयोडेट) 30 पी.पी.एम. के अनुपात में मिला देने से वह आयोडाइज्ड नमक कहलाता है। प्रतिदिन 5 से 10 ग्राम यह नमक खाने से शरीर में आयोडीन की पूर्ति हो जाती है।
नारियल तेल – कई लोग नारियल तेल का अधिक इस्तेमाल करते हैं क्योंकि खाने में इसका इस्तेमाल करने से शरीर के तापमान को बढ़ाने और प्राकृतिक ऊर्जा प्राप्त करने में मदद मिलती है। नारियल तेल थाइराइड के लक्षणों में शक्तिशाली भूमिका निभाता है।
कॉड लिवर तेल – कॉड लिवर तेल में विटामिन-ए अधिक मात्रा में होता है। विटामिन-ए थाइराइड ग्रंथि को सही तरीके से कार्य करने में मदद करता है।
अंडे – अंडे में विटामिन-ए के साथ-साथ आयोडीन की अधिक मात्रा होती है। इसके अलावा प्रोटीन भी प्रचुर मात्रा में होता है। प्राकृतिक एमिनो एसिड के जरिए प्रोटीन थाइराइड के लिए बहुत अच्छा होता है।
ट्युरोसिन फूड – ट्युरोसिन एक एमिनो एसिड है, जो थाइराइड और न्यूरोट्रांसमीटर के कार्य में महत्वपूर्ण होता है। थाइराइड रोग होने पर ट्युरोसिन की कमी हो जाती है। इसलिए ऐसे खाद्य पदार्थ लेने चाहिए, जो ट्युरोसिन से भरपूर हों। ऐसे कुछ खाद्य पदार्थ हैं-चिकन, मछली, डेयरी उत्पाद, गेहूं और जई बादाम, बीन्स, दाल, केले, कद्दू के बीज आदि।
जिंक और कॉपर फूड्स – थाइराइड में हार्मोन्स बनाना बहुत महत्वपूर्ण होता है और इस प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने में जिंक बहुत मदद करता है। इसलिए ऐसे खाद्य पदार्थ लेने चाहिए, जो जिंक से भरपूर हों। इनमें दलिया, गेहूं, गेहूं की भूसी, कॉपरयुक्त पदार्थ अंडे, किशमिश, फलियां और खमीर आदि भी शामिल हैं।
धनिया – थायराइड विकारों में धनिया की चटनी बनाकर दिन में 2 बार इस्तेमाल करें इससे वजन भी कम होता है।
नीम – नीम की कोमल पत्तियां, कालीमिर्च व काला नमक का पावडर बनाकर प्रतिदिन प्रातःकाल सेवन करें।
पथ्यापथ्य
आयुर्वेदानुसार रोगी को आहार हल्का व सुपाच्य लेना चाहिए। बासी तथा गरिष्ठ आहार से परहेज करें। जौ की रोटी, मखाना, कांचनार व सहिजन की फली, श्यामा तुलसी, कमल ककड़ी, सिंघाड़ा, शालि चावल, जौ, मूंग, पटोल आदि का सेवन लाभकारी है। रोग से बचने के लिए हमेशा आयोडाइज्ड नमक का प्रयोग करें, किंतु यह नमक 3 माह से अधिक पुराना न हो। इक्षु विकार, दुग्ध विकार, आनुप मांस, पिष्टान्न, अम्ल, मधुर, गुरु, अभिष्यन्दि अन्न रोगी के लिए अपथ्य है। रोगी को कब्ज की शिकायत नहीं होनी चाहिए।
थाइराइड विकार के रुग्णों की पंचकर्म के अंतर्गत- वमन, विरेचन तथा बस्ति चिकित्सा करते हैं, जिससे हार्मोन संतुलन होकर वजन नियंत्रित होता है। ग्रंथियों के कार्य सुचारु करने तथा मानसिक लक्षणों के लिए शिरोधारा, नस्य (निर्गुण्डी तेल) के प्रभावी परिणाम मिलते हैं।
इस प्रकार थाइराइड विकार से ग्रस्त रुग्णों को सम्यक व आयोडीन की प्रधानता वाले पदार्थ जैसे-दूध, गाजर, फलियां, मटर, पत्रशाक, कॉड लिवर आइल का उचित प्रमाण में सेवन, नियमित योगाभ्यास व प्रभावी आयुर्वेदिक औषधि सेवन के साथ पंचकर्म से लाभ प्राप्त होता है।
डॉ. अंजू ममतानी
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