Anorectal Diseases & Ayurvedic Treatments

Ano-rectalayurvedic-treament-sv-36-sir

  गुदरोग: आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रभावी

                  गुदा भाग को हम पूर्णतः निःसंकृमित नहीं कर सकते क्योंकि यहां पर विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं की उत्पत्ति होती है। उदा. E-coli के फलस्वरूप यहां विभिन्न व्याधियों की उत्पत्ति होती है, जिसकी चिकित्सा करना अत्यंत कठिन हो जाता है। जीवाणुओं के अलावा मल के द्वारा भी यह भाग बार-बार दूषित होता है। अतः शरीर के अन्य भागों की चिकित्सा करने की अपेक्षा यहां उत्पन्न होने वाली व्याधियों की चिकित्सा करना कठिन होता है क्योंकि अन्य भागों की अपेक्षा गुद भाग में रक्तवाहिनियां, लसिकावाहिनियां व तंत्रिकातंत्र अधिक मात्रा में रहते हैं।
  आयुर्वेद में गुदरोगों की संख्या 8 बताई गई है। गुद को आयुर्वेद व आधुनिक ग्रंथकारों ने    बृहदांत्र (Large Intestine) का अंतिम भाग निरूपित करते हुए इसके 2 प्रकार बताए हैं। 1) उत्तरगुदा (Rectum) 2) अधरगुदा (Anus) यह शरीर का महत्वपूर्ण अंग है। यदि इसकी रचना व क्रिया में कोई विकृति उत्पन्न हो जाए तो मनुष्य का जीवित रहना मुश्किल होता है, अतः आयुर्वेदानुसार इसे ‘मर्म’ कहा जाता है। आज मनुष्य की दिनचर्या में इतनी व्यस्तता है कि खानपान पर विशेष ध्यान नहीं रहा। परिणामतः पाचन संस्थान की विकृति होना स्वाभाविक है। खानपान की अनियमितताओं व पाचन संस्थान की दुष्टि का ही परिणाम हैं गुदरोग। इस स्थान में होने वाली प्रमुख व्याधियां हैं- बवासीर (Piles) परिकर्तिका (Fissure)भगंदर (Fistula) इत्यादि।

बवासीर

इसे आयुर्वेद में अर्श, प्रचलित भाषा में मूळ व्याधि और अंग्रेजी में Piles कहते हैं। बवासीर गुदाद्वार पर होने वाले मस्से हैं, जो वेदनायुक्त, दाहयुक्त, खुजलीयुक्त व रक्तयुक्त हो सकते हैं। वास्तव में बवासीर अत्यंत कष्टदायक व्याधि है। स्थान के आधार पर इसके 2 प्रकार कहे गए हैं- आंतरिक व बाह्य अर्थात् गुदाद्वार के अंदर या बाहर होने वाले।
बवासीर का मुख्य कारण कब्ज है। यह उसी समय निर्मित होती है, जब मनुष्य के खानपान में अंतर आता है। आजकल लोग चाइनीज फूड, नूडल्स, पानी पूरी, चाट, पकौड़ी इत्यादि के शौकीन हैं। अति महत्वाकांक्षी होने के कारण व्यक्ति तनावयुक्त जिंदगी जी रहा है। इन सब कारणों से पाचन संस्थान की दुष्टि होकर बवासीर होता है। अन्य कारणों में मल त्याग के समय जोर लगाना, गर्भपात, बिना चिकित्सक के परामर्श से बार-बार जुलाब लेना आदि हैं। इस रोग में मुख्यतः गुदा प्रदेश में दर्द, जलन व रक्तप्रवृत्ति होती है। इसके साथ पेट दर्द व गैस की तकलीफ होती है। गुदा में भारीपन की प्रतीति, आलस्य, दुर्बलता, अपचन, शरीर का वजन कम होना इत्यादि लक्षण होते हैं।

    परिकर्तिका

       गुदगत व्याधि में परिकर्तिका सामान्य रूप से पायी जाने वाली व्याधि है। भगंदर, बवासीर, परिकर्तिका इन तीनों स्थितियों को सामान्य व्यक्ति बवासीर ही समझता है, जबकि इन व्याधियों के लक्षणों में अंतर है। परिकर्तिका में जितनी तीव्र वेदना होती है, उतनी अर्श में नहीं होती। यह व्याधि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक पायी जाती है। इसका कारण वेग धारण करना (मलत्याग के वेग को जबरदस्ती रोकना) है।
इस व्याधि में गुदगत व्रण (घाव) स्थान पर असहनीय वेदना होती है। परिकर्तिका का पुनः होना (Recurrence) मुख्यतः कब्ज व अतिसार पर निर्भर होता है। जब तक पाचन संस्थान को सामान्य स्थिति में न लाया जाए, तब तक चाहे कितने भी उत्तम स्थानिक प्रयोग किए जाएं, कोई लाभ नहीं प्राप्त होता। परिकर्तिका अर्थात् कर्तनवत वेदना। इसमें गुदा भाग के चारों और काटने जैसी पीड़ा होती है। मलत्याग के समय जलन व रक्त के साथ मल आता है तथा उस समय असहनीय वेदना होती है। अतः रोगी मलत्याग के लिए जाने से कतराता है।
आधुनिक शास्त्र में बवासीर व परिकर्तिका की चिकित्सा मुख्यतः शस्त्रकर्म है, परंतु शस्त्र कर्म के बाद भी बवासीर को फिर होते देखा गया है। इसके मूल कारण पाचन संस्थान की विकृति को ठीक करने से स्वयं ही बवासीर के रुग्ण बिना आपरेशन के ठीक हो जाते हैं। आॅपरेशन से अनेक उपद्रव निर्मित होते है, अतः आयुर्वेद में बवासीर की चिकित्सा के अंतर्गत औषधि, क्षारसूत्र, अग्निकर्म, पंचकर्म का वर्णन हैै।
बवासीर व परिकर्तिका में मुख्यतः पाचन संस्थान की विकृति व अर्शोघ्न औषधियों का प्रयोग किया जाता है। सभी प्रकार के बवासीर में अर्शकुठार रस व अर्शोघ्नी वटी 1-1 वटी सुबह-शाम भोजनोत्तर अभयारिष्ट 2 चम्मच के साथ 3-4 माह तक सेवन करना चाहिए। खूनी बवासीर या जलन होने पर रक्तस्तंभक 2 वटी सुबह-शाम, उशीरासव व चन्दनासव 2 चम्मच के साथ लें। बवासीर के मस्से सूखे होने पर अर्शकुठार रस 10 ग्राम, आरोग्यवर्धिनी 10 ग्राम, कांकायन वटी 10 ग्राम व अर्शोघ्नी वटी 10 ग्राम की 60 पुड़ियां सुबह शाम लेने से धीरे-धीरे मस्से ठीक हो जाते हैं। कोष्ठ शुद्धि के लिए रात्रि में रोज त्रिफला चूर्ण 2 चम्मच बवासीर के रुग्ण को लेना चाहिए। उक्त औषधियां चिकित्सक के परामर्श से ही सेवन करना चाहिये, जिससे अच्छा लाभ मिलता है।
बवासीर में औषधियुक्त तैल या क्वाथ की मात्रा बस्ति के अच्छे परिणाम पाए गए हैं। औषधियुक्त अवगाह स्वेद से रुग्ण की असहनीय पीडा कम हुई है। उक्त चिकित्सा से आराम न होने पर क्षारसूत्र बंधन से बवासीर का पुनरुद्भव बहुत कम पाया गया है, अतः क्षारसूत्र बंधन इसकी प्रभावी चिकित्सा है। क्षारसूत्र सस्ती व सुलभ चिकित्सा है, इसके पश्चात आराम की आवश्यकता नहीं रहती। रोगी सहजता से रोजमर्रा के कार्य कर सकता है। आॅपरेशन थिएटर की भी आवश्यकता नहीं पड़ती।

     भगंदर

वास्तव में यह एक सुरंग या नाली की तरह का घाव होता है, जिसका एक छोर गुदा या मलाशय के भीतर खुलता है तो दूसरा गुदा के करीब बाह्य भाग में त्वचा के ऊपर। यह घाव एक नासूर का रूप ले लेता है, जो कभी संपूर्ण रूप से भरता नहीं। इस स्थायी रास्ते की निर्मिति ही भगंदर से जुड़ी परेशानियों का कारण बन जाती है। इसके लक्षणों में काफी उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, जैसे कि कभी तो यह बहुत उग्र दिखता है और कभी बिल्कुल शांत हो जाता है।
इस बीमारी की उत्पत्ति का प्रमुख कारण है मलाशय और गुदा में होने वाले व्रणों की अधूरी और असंबद्ध चिकित्सा। इसमें इन भागों में उत्पन्न मवाद को समय पर न निकालकर उसे स्वयं फूटकर बाहर निकलने को बाध्य किया जाता है। इसके अलावा अन्य रोग जैसे- मलाशय शोथ, आंत, मलाशय या गुदा का क्षय रोग, मलाशय का कैंसर इत्यादि भी हो सकते हैं। जीर्ण अवस्था में पहुंचा हुआ बरसों पुराना भगंदर अपने भीतर कैंसर को भी जन्म दे सकता है। बार बार मवाद स्रावित करने वाला भगंदर का बाह्य छिद्र मरीज के लिए चिंता और परेशानी का सबब बन जाता है।

 उपचार

हालांकि इस रोग का संपूर्ण इलाज शल्यक्रिया ही है, प्रारंभ में प्रतिजैविक औषधियों एवं दर्दनाशक दवाओं का सेवन फायदेमंद होेता है। उस स्थान को बार-बार धोना और गर्म पानी से भरे टब में बैठकर सेंक भी देते हैं। कब्ज को दूर कर मल निकास को सरल और सुगम बनाना भी जरूरी है।
भगंदर के उपचार के लिए आयुर्वेद में औषधि व क्षारसूत्र पद्धति से उपचार किया जाता है। क्षारसूत्र चिकित्सा में दवायुक्त धागे को भगंदर के दोनों छोर में पिरोकर धीरे-धीरे कसा जाता है, जिसके फलस्वरूप रोगग्रस्त सुरंग नष्ट होने से व्याधि ठीक हो जाती है। किन्तु इसे किसी कुशल एवं अनुभवी आयुर्वेदिक चिकित्सक की देखरेख में ही किया जाना चाहिए।
फिस्चुला देखने में तो मामूली विकार प्रतीत होता है, पर इसे अनदेखा न करें। कालांतर में यह बीमारी कौनसा भीषण रूप धारण कर ले, यह कोई नहीं जान सकता।
आयुर्वेद चिकित्सा में परहेज को अत्यंत महत्व है, जिससे आधी बीमारी स्वतः ही समाप्त हो जाती है। गुदरोग से ग्रस्त रुग्ण के लिए सादा, सुपाच्य व हलका आहार ही श्रेयस्कर है। मसालेदार चटपटी चीजों के सेवन से यथासंभव बचना चाहिए। व्यायाम में योगासन लाभकारी हैं। गुदरोग का कारण कब्ज है, अतः आहार-विहार में परिवर्तन कर कब्ज से बचने का हरसंभव प्रयास करना चाहिए।

डाॅ.जी.एम.ममतानी

जीकुमार आरोग्यधाम
आयुर्वेदिक पंचकर्म हाॅस्पीटल एड रिसर्च इन्स्ट्टियुट
238,कस्तुरबा नगर, नारा रोड, जरीपटका नागपुर-14
फोन- 0712-2645600,2646600,2647600