अत्यंत कष्टप्रद व्याधि जलोदर (Ascites)
पेट में आवश्यकता से अधिक पानी संगृहीत हो जाने के कारण उत्पन्न रोग ’जलोदर‘ महिला-पुरुषों के अलावा बच्चों को भी हो सकता है। आयुर्वेद में इस विकार की सम्प्राप्ति, निदान, लक्षणों एवं उपचार संबंधी शोध सैकड़ों वर्ष पूर्व ही कर लिए गए थे, जो वर्तमान में भी उतने ही प्रासंगिक हैं। आधुनिक चिकित्साशास्त्र ने भी इस दिशा में महत्वपूर्ण अनुसंधान कर, इस रोग के उन्मूलनार्थ महती भूमिका निभाई है। जलोदर का रोगी उठने-बैठने, चलने आदि में कष्ट होने के फलस्वरूप पर्याप्त शारीरिक श्रम करने में असमर्थ होता है। परिणामस्वरूप उसे कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अतः रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखते ही योग्य चिकित्सक के मार्गदर्शन में पूरी गंभीरता के साथ उपचार कराना आवश्यक है।
आयुर्वेद के आचार्य महर्षि अग्निवेश के अनुसार प्रकृति विरुद्ध आहार सेवन करने से अग्नि मंद पड़ जाने और आहार के पूरी तरह नहीं पचने के कारण दोषों का संचय होने से प्राण, अग्नि और अपान वायु विकृत होकर उदर में विकृति उत्पन्न करते हैं। ऐसी स्थिति में त्वचा एवं मांस के मध्य दोष पहुंचकर कुक्षि की वृद्धि (शोथ) करके उदर रोेगों की उत्पत्ति करते हैं। इस स्थिति में उदरावरण गुहा (Peritoneal Cavity) के जल संचय से जलोदर रोेेेग का उद्भव होता है।
उदरावरणकला (Peritoneum) में लंबे समय तक सूजन रहे या उसकी रक्तवाहिनियों में रक्त का संचय अधिकाधिक होता जाए तो उनको ऑक्सीजन के यथावत् मात्रा में न मिलने अर्थात् (Anoxia) से इसकी दीवारों की प्राणशक्ति कम हो जाने से उनकी परिस्रवणशीलता (Permeability) बढ़ जाती है। यकृत के कोषाणुओं (Cells) के विकृत होने से रक्त के सीरम में अल्ब्युमिन की मात्रा घट जाती है, जिससे रक्त में अवयवों से जल भाग को खींच लेने की शक्ति भी घट जाती है। इसी कारण जलोदर में प्रोटीन की कमी को पूरा करने के लिए दूध देने का विधान आयुर्वेद में है। सुश्रुत ने कहा है कि वायु से प्रेरित हुआ जल रक्त में से बाहर आकर कोष्ठ गुहा में भरने लगता है अर्थात् रक्तवाहिनियों की निर्बलता तथा रक्त के अंदर कमी होने से उसमें से जल भाग बाहर आता है। वात प्रधान होने पर भी अन्य उदर रोगों के समान जलोदर रोग भी त्रिदोषज होता है। प्रथम आयु में होने वाला क्षयज जलोदर, मध्यम आयु में होने वाला यकृद्रोगजनित जलोदर तथा बड़ी आयु में होने वाला कैंसरजनित जलोदर सभी त्रिदोष प्रकोप के कारण होते हैं। तथापि इनमें वायु और कफ की वृद्धि विशेष रहती है।
रोग की उत्पत्ति के विभिन्न कारण
आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार जब कोई व्यक्ति पाचनक्रिया के क्षीण होने अर्थात् मंदाग्नि की स्थिति में अधिक शीतल व उष्ण, गुरु (देर से पचने वाला) आहार ग्रहण करता है तो वह व्यक्ति जलोदर रोग से पीड़ित होता है। आहार में अधिक घी, तेल, मक्खन से निर्मित वसायुक्त व्यंजनों का अधिक सेवन करने और उसकी पाचनक्रिया सम्पन्न नहीं होने पर जलोदर रोग की उत्पत्ति होती है।
•आयुर्वेदानुसार पंचकर्म के स्नेहपान, अनुवासन, वमन, विरेचन क्रिया या निरूहण बस्ति के बाद तुरंत शीतल जल का सेवन करने से उसके जलवाही स्रोतों को हानि पहुंचती है। ऐसे में जलवाही स्रोतों में अवरोध के कारण जलोदर रोग की विकृति होती है। दूषित व बासी, प्रकृति विरुद्ध खाद्य पदार्थों का सेवन, रात्रि में देर तक जागने पर नींद पूरी नहीं होना, मांस-मछली का अधिक सेवन आदि पाचनक्रिया को विकृत करके जलोदर रोग की उत्पत्ति करते हैं।
•शराब पीने वाले व्यक्ति जलोदर रोग से अधिक पीड़ित होते हैं। मादक द्रव्यों से मस्तिष्क व पाचन तंत्र को बहुत हानि पहुंचती है। मादक द्रव्यों (शराब) की अधिकता के कारण लिवर को सबसे अधिक हानि पहुंचती है। इन द्रव्यों के विषैले, उत्तेजक तत्व लिवर में सूजन उत्पन्न करते हैं, इस कारण लिवर की शिराओं में रक्त एकत्र होने लगता है। लिवर की शिराओं से बूंद-बूंद टपककर (रिसकर) जलीय अंश उदर में एकत्र होने लगता है। अधिक मात्रा में जल अंश के एकत्र होने से जलोदर रोग उत्पन्न होता है।
• विभिन्न संक्रामक रोगों के कारण भी यकृत के भीतर स्रौत्रिक तंतुओं की अधिक वृद्धि होने पर जब आमाशय और आंतों आदि से प्रेषित रक्त लिवर में नहीं पहुंच पाता है, वह लौटने के मार्ग में अवरोध होने पर प्रतिहारिणी शिरा के समीप एकत्र होता है और फिर शिराओं की दीवारों से रिसकर जल अंश उदर में जलोदर रोग के रूप में विकृति करता है। इसके अलावा आंतों की श्लैष्मिक कला में उत्पन्न रोग, प्लीहा वृद्धि, फुफ्फुस के कारण भी जलोदर रोग हो सकता है। आधुनिक चिकित्सक कैंसर के कारण भी जलोदर रोग की उत्पत्ति मानते हैं।
• मूत्र संस्थान में विकृति होने पर गुर्दों को बहुत हानि होती है। ऐसी स्थिति में शिराओं में रक्त भार कम हो जाता है और उनकी कार्यक्षमता क्षीण होने लगती है। इस कारण त्वचा की निचली सतह में जल एकत्र होने लगता है। इस तरह जलोदर रोग की उत्पत्ति होती है।
• प्रतिहारिणी शिरा में अवरोध होने से रक्त का दबाव बढ़ने लगता है तो अर्श रोग (बवासीर) के साथ जलोदर रोग की भी विकृति होने लगती है। क्षयरोग के कारण उदरावरण में शोथ होने पर रक्तवाहिनियों की दीवारों से जलीय अंश का क्षरण होने के कारण जलोदर की विकृति होती है। प्लीहोदर रोग में प्लीहा व यकृत की वृद्धि होने के कारण भी जलोदर रोग की उत्पत्ति होती है।
•हृदय रोगों के कारण जब हृदय रक्त को पूरी तरह अपनी ओर नहीं खींच पाता है, तो ऐसी स्थिति में शिराओं पर रक्तभार बढ़ने लगता है और जलीय अंश उदर कलाओं और पांवों में एकत्र होने के साथ शोथ (सूजन) व जलोदर की उत्पत्ति करता है।
लक्षण
•जलोदर रोग में उदर में जल एकत्र होने से वह फूल जाता है अर्थात् उसका आकार बढ़ जाता है। जब जलोदर रोग की उत्पत्ति होती है, तो धीरे-धीरे जल एकत्र होने से उदर में वृद्धि होने लगती है। कुछ ही सप्ताह में उदर कुंभ (घड़े) की तरह दिखाई देने लगता है। ऐसे में उदर को थपथपाने पर जल की गड़गड़ की ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है। रोगी के चलने-फिरने पर जल के इधर-उधर होने की अनुभूति होती है।
• वृक्क (गुर्दों) की विकृति के कारण उत्पन्न जलोदर रोग में अक्षिकूट (आंखों के नीचे) पर सुबह सोकर उठने पर शोथ की विकृति दिखाई देती है। जलोदर के रोगी को अल्प मात्रा में मूत्र निष्कासित होता है। शिरावरोधजन्य जलोदर रोग में पांवों में सूजन, अपचन, कब्ज और बवासीर के लक्षण दिखाई देते हैं। कुछ रोगियों में पीलिया के भी लक्षण दिखाई देते हैं।
• जलोदर रोग में रोगी की पलकों व शरीर के विभिन्न अंगों पर सूजन होने, अधिक कफ विकृति और पाचनक्रिया क्षीण होने के लक्षण प्राणघातक हो सकते हैं, ऐसी स्थिति में अनुभवी चिकित्सक से ही चिकित्सा करानी चाहिए। असाध्य लक्षणों में उदर कुंभ की तरह दिखाई देता है, भोजन के प्रति अनिच्छा, अतिसार की अधिकता भी हो सकती है। जलोदर के कुछ रोगियों में ज्वर की विकृति देखी जाती है।
•उदर में जल एकत्र होने, पेट फूल जाने पर रोगी को कुर्सी, सोफे पर बैठने में भी कठिनाई होने लगती है। सीढ़ियों पर चढ़ना, स्कूटर पर यात्रा करना मुश्किल हो जाता है। रात्रि को बिस्तर पर सोने में भी बहुत परेशानी होती है। शरीर की त्वचा का रंग पीला-पीला दिखाई देता है, श्वास में अवरोध होता है और खांसी का प्रकोप होता है।
आधुनिक मत
उदरगुहा (Peritoneal Cavity) में द्रव संचय होकर उदर (पेट) का बड़ा दिखना जलोदर (Ascites) कहलाता है। उदरावरणकला के रोग के कारण जल भरे तो उस द्रव को स्राव (Exudation) कहते हैं। हृदय रोग, वृक्करोग आदि के कारण जल भरने पर उसे परिस्राव (Transudate) कहते हैं। इनमें से पहला स्राव धुंधला-सा, 1.015 से अधिक स्पेसिफिक ग्रैविटी का तथा अधिक प्रोटीन से युक्त होता है। दूसरा परिस्राव देखने में स्वच्छ, 1.015 स्पेसिफिक ग्रैविटी से कम का तथा स्वल्प प्रोटीन से युक्त होता है।
आधुनिक चिकित्साशास्त्रानुसार जलोदर बिना सूजन वाला (Non inflammatory) होता है। यह रोग नहीं, बल्कि हृदय, वृक्क, यकृत इत्यादि में उत्पन्न हुए विकारों का प्रधान लक्षण है। यकृत के प्रतिहारिणी (Portal) रक्तसंचरण की बाधा, कैंसर और सूत्रणरोग (Cirrhosis) जैसे यकृत के भीतरी विकारों के कारण तथा आमाशय, ग्रहणी, अग्न्याशय इत्यादि एवं विदर (Fissure) में बढ़ी हुई लसिका ग्रंथियों जैसे यकृत के बाहर के कुछ विकारों के कारण प्रतिहारिणी शिराओं पर दबाव पड़ने से उत्पन्न होती है।
यकृत रोग जनित जलोदर
(Ascites due to Hepatic Cirrhosis of Portal Obstruction)
यकृतरोग के कारण यकृत के अंदर की (Portal Capillaries) में रक्त संचय और रक्तभार के बढ़ जाने एवं (Portal System) या कोष्ठगत आशयों की शिराओं की दीवारों में से जल भाग के इस कोष में रिस-रिसकर बाहर निकलने से जलोदर होता है, जिसे Hydroperitoneum कह सकते हैं। मध्यम आयु के व्यक्तियों में चिरकाल या वर्षों तक यकृद्रोग से ग्रस्त रहने के बाद उसके उपद्रव के रूप में यह रोग होता है। इस अवस्था में Portal Hypertension के कारण प्लीहा का लक्षण भी थोड़ा-बहुत होता है। यकृत भी बड़ा तथा कठोर होता है। यद्यपि कभी-कभी वह संकुचित हुआ होता है। जलोदर से पेट तो उभरा होता है, पर शाखाएं कृश दिखती हैं।Portal Hypertension के कारण होने वाला यह जलोदर सबसे अधिक पाया जाता है। कोष्ठ की शिराओं में जल का दबाव बढ़ने से यह होता है।
वृक्क रोग जनित जलोदर
(Ascites due to Acute or sub Acute Nephritis)
वृक्क रोग के कारण जब मूत्र के द्वारा बहुत-सा अल्ब्युमिन निकल जाता है एवं रक्त में प्रोटीन की मात्रा 5 प्रतिशत से कम या 2 ग्राम प्रतिशत से कम हो जाती है (Hypoproteinarmia) तो सर्वांग (पूरे शरीर) में सूजन का रोग हो जाता है क्योंकि जब तक शिराओं के रक्त में पर्याप्त Colloid Osmotic Pressure रहता है, वे अवयवों में विद्यमान जल को अपनी और खींचती रहती हैं। अल्ब्युमिन के कम होने से जब उनका यह भार कम हो जाता है तो उसकी जल को अपनी ओर खींचने की शक्ति नहीं रहती, जिससे अवयवों में जल तथा लवण अधिकाधिक संचित होते जाते हैं। जिस प्रकार त्वचा के नीचे के अवयव(Sub- cutaneous Tissue) में जल एकत्रित हो जाता है, वैसे ही उदरावरण कोष या Peritoneum में भी भरने लग जाता है अर्थात् इस अवस्था में जलोदर रोग सर्वांग शोथ का एक भाग होता है तथा इस अवस्था में चेहरे, पांव में सूजन के साथ हलके जलोदर का लक्षण होता है। मूत्र में अल्ब्युमिन व Casts, रक्त में Cholesterol की वृद्धि तथा रोगी के श्वेत वर्ण व फूले हुए शरीर को देखकर इस रोग का निश्चय हो जाता है।
उदररोग जनित जलोदर
(Ascites due to peritonitis) उदरावरणकला (Peritoneum) में सूजन हो जाने के कारण इस कला में से स्राव (Exudation) होकर जलोदर हो जाता है जिसे Seroperitoneum कह सकते हैं। 5-10 वर्ष की आयु के बालकों में जलोदर हो तो जैसे ऊपर कहा गया है, वह बहुधा उदरगुहा या Peritoneum में क्षय जीवाणुओं के संक्रमण कर जाने से होता है, इसे क्षयोदर कहते हैं। इस अवस्था में बालक का पेट उभरा हुआ स्थूल होता है, पर उसके हाथ-पांव आदि अंग कृश (दुबले) होते हैं। उसे शाम के समय बुखार रहता है।
हृदय रोग जनित जलोदर
(Ascites due to cardiac failure)
हृदय शैथिल्य(Cardiac Dilatation ) के रोग में जब चिरस्थायी कास, श्वास (Emphysema) के कारण दक्षिण हृदय में निर्बलता आ जाती है, तब शरीर की शिराओं में रक्तभार बढ़ जाता है तथा उनकी दीवारों को ऑक्सीजन कम मिलती है एवं वे निर्बल हो जाती हैं। इससे उनमें से जल भाग अधिक मात्रा में बाहर निकलने लगता है। जल के साथ लवण भी अधिक मात्रा में अवयवों में संचित हो जाता है। Portal Capillaries में भी इस प्रकार रक्तभार के बढ़ जाने से जलोदर हो जाता है। अतः श्वास लेने में कष्ट तथा खांसी का लक्षण पहले होता है और उसके कुछ समय बाद दक्षिण हृदय के निर्बल हो जाने पर फिर पैरों में सूजन होती है और उसके बाद जलोदर का लक्षण होता है। ग्रीवा की Jugular शिराएं इस रोग में फूली हुई दिखाई देती हैं। यकृत में भी वृद्धि का लक्षण होता है।
कैंसर जनित जलोदर
(Ascites due to carcinoma)
55 की उम्र से ऊपर, बड़ी आयु के व्यक्तियों में जलोदर हो तो वह बहुधा कैंसर रोग जनित होता है। पहले आमाशय या गुदा में कैंसर प्रारंभ होता है। वहां से उसके सेल लसिका वाहिनियों (Lymph Vessels) के द्वारा Peritoneum में प्रसरण कर जाते हैं अथवा वहां से यह रोग लसिका वाहिनियों के द्वारा portal fissure में विद्यमान Lymph Glands में संक्रमण करता है और उन बढ़ी हुई ग्रंथियों के दबाव के कारण Portal vein के दब जाने से उदरावरण कोष में जल भरने लगता है। इस अवस्था में यकृत बड़ा, कठोर तथा आकार में बड़ा होता है। उदर गुहा में भरे जल में रक्त का मिश्रण होता है, जिसे निकाल भी दें, तो तुरंत भर जाता है।
इस अवस्था में प्रायः यकृत प्रदेश पर व दाएं कंधे पर या उधर की पीठ पर दर्द होने का लक्षण होता है। यकृत आकार में बड़ा व कठोर हो तो ऐसे जलोदर को कैंसर जनित ही समझना चाहिए। Portal fissure में विद्यमान Bile Duct पर इन ग्रंथियों का दबाव पड़ जाने से पीलिया का लक्षण भी हो जाता है। कैंसर जनित जलोदर की अवस्था में रोगी में थोड़े ज्वर के लक्षण भी होते हैं तथा वह कमजोर होता है।
चिकित्सा
जिस कारण से जलोदर हो, उसे दूर करना चाहिए। इस रोग में रोगी के शरीर से जल निष्कासन के लिए गुणकारी औषधियों से मूत्र के रूप में जल निष्कासित करने से जल का काफी अंश निकल जाता है। इसमें प्रथम गोमूत्र मिश्रित तीक्ष्ण नाना प्रकार के क्षारों से युक्त और जल के दोषों को दूर करने वाली औषधि देवें। जलोदर में रोगी की शक्ति की रक्षा करते हुए अर्थात् वायु वृद्धि न होने पाए, इस प्रकार उसकी विरेचन चिकित्सा की जाती है। मूत्र विरेचक औषधियां भी दी जाती हैं। इन दोनों तथा लंघन से कफ दोष का शोधन व शमन किया जाता है।
औषधि चिकित्सा
निम्नलिखित औषधियों का सेवन चिकित्सक के मार्गदर्शन में करें क्योंकि चिकित्सक रुग्ण का प्रकृति-परीक्षण कर औषधि का चयन करता है-
1) सर्वतोभद्र रस 125 मि.ग्रा. मात्रा में सुबह-शाम बेलगिरी के पत्तों के रस और मधु मिलाकर सेवन करने से जलोदर का प्रकोप कम होता है। गुर्दों का प्रदाह भी कम होता है।
2) स्वर्ण पर्पटी 125 मि.ग्रा. मात्रा में सुबह-शाम मट्ठे के साथ सेवन कराने से जलोदर रोग में ग्रहणी की विकृति का भी निवारण होता है।
3) ताम्र भस्म 60 ग्राम मात्रा में जलोदर रोगी को दिन में 2 बार मधु मिलाकर चटाकर सेवन कराने से बहुत लाभ होता है।
4) जलोदर से विकृत उदर पर विषगर्भ तैल से अभ्यंग करने से शोथ नष्ट होता है।
5) प्लीहोदरजन्य जलोदर रोग में रोहितक लौह 500 मि.ग्रा. सुबह और शाम पुनर्नवासव व रोहितकारिष्ट 2-2 चम्मच के साथ सेवन कराने से भरपूर लाभ होता है।
6) वृक्क शोथ की विकृति से उत्पन्न जलोदर रोग में पुनर्नवा मण्डूर व चंद्रप्रभावटी और पुनर्नवा रस 10 मि.ली. मधु मिलाकर सेवन कराने से लाभ होता है।
7) यकृत विकृति से उत्पन्न जलोदर रोग में यकृदारि लौह 5 ग्राम, प्रवाल पंचामृत 5 ग्राम, ताम्रभस्म 5 ग्राम, आरोग्यवर्धिनी 5 ग्राम की 40 पुड़ियां बनाकर 1-1 मात्रा में पुनर्नवा के रस के साथ सुबह-शाम सेवन कराने पर रोग नष्ट होता है। इसके साथ रोगी को कुमारीकल्प 15 से 20 मि.ली. सम मात्रा में जल मिलाकर भोजन के बाद दोनों समय सेवन कराने से अत्यंत फायदा होता है।
8) नाराच घृत 5 से 10 ग्राम मात्रा में प्रतिदिन हलके गरम जल के साथ सेवन कराने से मलावरोध की विकृति नष्ट होती है व रोगी जलोदर रोग से मुक्त होता है।
9) पिप्पली 1 तोला, स्नुहीक्षीर 5 तोला मिलाकर, घोंटकर चने के बराबर गोली बनाएं। 1-1 गोली दूध के साथ सेवन करें।
10) अपामार्ग क्षार 250 मि. ग्रा., गोमूत्र 10 मि.ग्रा. के साथ लें।
11) वज्रक्षार सुंठी सिद्ध तक्र के साथ लें।
12) पलाशक्षार 250 मि.ग्रा., पिप्पली पूर्ण 1 ग्रा., सोंठ 1 ग्रा. वचा सिद्ध तक्र के साथ 2 बार लें।
13) सिरोसिस ऑफ लिवर (Cirrhosis of liver) में आरोग्यवर्धिनी 5 ग्रा., प्रवाल पंचामृत (मौ.यु.) 1 ग्राम, स्वर्णमाक्षिक भस्म 5 ग्राम, हीरक भस्म 100 मि.ग्रा., पुनर्नवामंडूर 10 ग्राम, कामदूधा 5 ग्राम, गुडवेल सत्व 10 ग्राम, स्वर्ण सूतशेखर रस 1 ग्राम मिलाकर 60 पुड़ियां बनाएं व कुमारी आसव 2 चम्मच के साथ दिन में 3 बार लें।
14) जलोदरारि रस (पिप्पली, मरिच, ताम्र भस्म, हल्दी, दंती बीज की सम मात्रा मिलाएं) 2 रत्ती की मात्रा प्रातःकाल दी जाती है। इस प्रकार सप्ताह में एक दिन प्रातः विरेचन औषधि दी जाती है। विरेचन हो जाने पर उस दिन तथा शेष दिन पिप्पली के साथ दूध दिया जाता है अथवा विरेचनार्थ कोई चूर्ण जैसे त्रिवृत् चूर्ण या हरीतकी चूर्ण 1 चम्मच सप्ताह में एक दिन प्रातः शर्बत के साथ व गर्म जल से देकर विरेचन कराए जाते हैं। इसमें मृदु विरेचन के अंतर्गत आरोग्यवर्धिनी वटी एक-एक सुबह-शाम हलके गरम पानी के साथ व अत्यंत तीव्र विरेचन के लिए इच्छा भेदी रस 125 मि. ग्रा. दें।
विरेचन चिकित्सा के अतिरिक्त गोमूत्र का सेवन भी कराया जाता है। पुनर्नवाष्टक क्वाथ (पुनर्नवा, दारू हल्दी, कुटकी, पटोल, हरड़, नीम, सोंठ, गिलोय) में गोमूत्र 2 से ढाई तोला मिलाकर उसे प्रातःकाल पिलाया जाता है या 1 सेर हरीतकी को 1 डेढ़ सेर गोमूत्र में मंद-मंद अग्नि पर सुखाकर उनसे बनाए चूर्ण को 6 माशा की मात्रा में देकर विरेचन कराया जाता है। इसी प्रकार गोमूत्र से पक्व या भावित किए मंडूर का 2-4 रत्ती की मात्रा में प्रतिदिन प्रयोग कराया जाता है। रोगी में मूत्र-प्रवर्तनार्थ पुनर्नवामूल तथा कासनी को बराबर मिला 2 से ढाई तोला की मात्रा में लेकर उसका क्वाथ, शोरा 1 माशा, यवक्षार 1 माशा मिलाकर प्रतिदिन दिया जाता है।
इस प्रकार रोगी की विरेचन व मूत्रल चिकित्सा 1-2 महीने तक जारी रखी जाती है। आहारार्थ दिनभर में पिप्पली के साथ डेढ़ से 2 सेर तक दूध दिया जाता है। जल तथा लवण नहीं दिए जाते। इस प्रकार 6 मास तक दूध, जांगल मांसरस, चावल, जौ मिश्रित गेहूं पर ही रहने से इस रोग में स्थायी लाभ हो सकता है।
घरेलू चिकित्सा
• बकरी की मींगनियों के क्षार को गोमूत्र में घोलकर छानकर अग्नि से पकाएं। जब यह गाढ़ा होने लगे तब इसमें पिप्पली, पिप्पलीमूल, सोंठ, पांचों नमक, दंती, द्रवंती (मोगलई एरंड), त्रिफला, स्वर्णक्षीरी, मेढ़ासिंगी, सर्जिक्षार, वच, सातला, यवक्षार इनमें प्रत्येक का एक-एक कर्ष मिलाकर बेर के समान गोलियां बना लें। इन गोलियों को कांजी में घोलकर शोथ में और बढ़े हुए जलोदर में पिएं।
• पुनर्नवा के पंचांग को जल के छींटे मारकर सिल पर पीसकर पेट पर लेप करने से जलोदर रोग का निवारण होता है।
• मूली के ताजे पत्तों का रस निकालकर 50 ग्राम मात्रा में प्रतिदिन सुबह-शाम पिलाने से जलोदर रोग का प्रकोप नष्ट होता है।
• अपामार्ग 25 ग्राम मात्रा में लेकर, थोड़ा-सा कूटकर जल में उबालकर काढ़ा बनाएं। इस काढ़े को छानकर कुटकी का 3 ग्राम चूर्ण मिलाकर सेवन कराने से जलोदर रोग नष्ट होता है।
• पिप्पली को कूटकर, खरल में आक के दूध के साथ घोंटकर बारीक चूर्ण बनाकर रखें। 3 ग्राम चूर्ण दूध के सेवन कराने से लाभ होता है। पिप्पली चूर्ण की मात्रा दिन-प्रतिदिन बढ़ा सकते हैं।
• जलोदर के रोगी जवाखार, त्रिकटु और सेंधा नमक का मठ्ठा नित्य पिएं।
• दशमूल, देवदारू, सोंठ, गिलोय, पुनर्नवा और बड़ी हरड़ का काढ़ा पीने से जलोदर की सूजन कम होती है।
• करेले के पत्तों का रस 6-6 ग्राम मात्रा में प्रतिदिन सेवन कराने से मूत्र निष्कासन की मात्रा बढ़ जाती है और जलोदर नष्ट हो जाता है।
• पुनर्नवा की जड़ 20 ग्राम मात्रा में गोमूत्र 50 उस के साथ पीसकर सुबह-शाम सेवन कराने से मूत्र का अधिक निष्कासन होने से शीघ्र लाभ होता है।
•छोटी हरड़ तवे पर भूनकर, कूटकर चूर्ण बनाकर रखें। हरड़ के चूर्ण में सेंधा नमक पीसकर मिलाएं। 3-3 ग्राम चूर्ण सुबह-शाम गोमूत्र के साथ सेवन करने से जलोदर शीघ्र नष्ट होता है।
•आधा कप बथुए के साग का रस तथा थोड़ा नमक मिलाकर पिलाएं। बेल के ताजे पत्तों का रस 10 ग्राम, छोटी पीपल का चूर्ण 2 ग्राम तथा काला नमक 2 ग्राम तीनों को मिलाकर सुबह-शाम देना चाहिए।
•कुटकी 30 ग्राम लेकर 2 लीटर पानी में आंच पर पकाएं। जब पानी 250 उस रह जाए, आग से उतार लें। 60 उस की मात्रा के हिसाब से यह काढ़ा दिन में 4 बार रोगी को दें। इस प्रकार प्रतिदिन तैयार करके 14 दिन पिलाएं। तमाम पानी मूत्र और मल द्वारा निकल जाता है, सूजन कम हो जाती है तथा रोगी स्वस्थ और हलका महसूस करता है।
•प्रतिदिन 5 पिप्पली को दूध में देर तक उबालकर सेवन करने से जलोदर रोग नष्ट होने लगता है। प्रतिदिन 1-2 पिप्पली क्रमशः बढ़ाकर सेवन करने से उदर से जल निष्कासित हो जाता है। बार-बार उदर में जल एकत्र होने की विकृति से छुटकारा मिल जाता है। यह चिकित्सा विशेष गुणकारी है।
शस्त्रकर्म
आयुर्वेद में जलोदर रोग में शस्त्रकर्म करने का वर्णन है, जिसके द्वारा पानी को बाहर निकाला जाता है। आधुनिक चिकित्सानुसार इसे ही टैपिंग (Tapping) कहते हैं। आयुर्वेद के अष्टांग हृदय ग्रंथ में वर्णित है कि जलोदर के रोगी का पानी निकालने के बाद वह 6 मास तक केवल दूध पर ही रहे। 3 मास तक दूध में बनी दूध मिश्रित अन्न पिए तथा शेष 3 मास केवल दूध से ही पुरातन सावां या कोदो धान्य को स्नेह और नमक न मिलाकर अथवा अत्यल्प मिलाकर खाए अथवा अनार के रस या मांसरस के साथ पुराने सावां आदि का सेवन करें। इस प्रकार करने पर प्रायः एक साल में रोगी जलोदर से मुक्त हो जाता है। कभी अधिक समय भी लगता है, स्नेह और नमक सर्वथा न दें तो उत्तम है।
आहार
जलोदर के रोगी को आहार के साथ जल कम से कम मात्रा में सेवन करना चाहिए। इस रोग में दूध का सेवन अधिक करना चाहिए। रोगी को मांस, मछली, घी, तेल के खाद्य पदार्थ सेवन नहीं करने चाहिए। शराब से अधिक हानि पहुंचती है। अग्नि को प्रदीप्त करने वाले व कफनाशक आहार से रोगी की चिकित्सा करें। यकृद्रोग जनित जलोदर में रक्त में प्रोटीन (Hypoproteinarmia)कम होता है तथा अवयवों में लवण (Sodium chloride) का संचय अधिक होता है। अतः प्रोटीन-प्रधान तथा लवण-रहित भोजन 20 ml की मात्रा में प्रयोग करना चाहिए। बिना चिकनाई का दूध सवा किलो, मठ्ठा 2 पाव, सब्जी 60 gm, अंडा तथा फल उसे प्रतिदिन देना चाहिए।
जलोदर के रोगी के लिए अतिशय अम्ल, उष्ण, लवणादि आहार वज्र्य हैं।
प्राकृतिक चिकित्सा
• जलोदर रोग का उपचार करने के लिए रोगी को ऐसे पदार्थ अधिक खाने चाहिए, जिनसे पेशाब अधिक मात्रा में आए तथा साफ हो।
•रोग से पीड़ित रोगी को अपनी पाचनक्रिया को ठीक करने के लिए प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करना चाहिए क्योंकि जब पाचनक्रिया ठीक हो जाएगी, तभी यह रोग ठीक हो सकता है।
• रोगी को पानी पीना तथा भोजन करना भी बंद कर देना चाहिए। यदि रोगी को प्यास लग रही हो तो उसे दही का पानी, ताजा मट्ठा, फलों का रस तथा गाय के दूध का मक्खन देना चाहिए। इसके अलावा रोगी को और कुछ भी सेवन नहीं करना चाहिए।
•यदि रोगी अधिक कमजोर नहीं है, तो उसे एक दिन उपवास रखना चाहिए।
• रोगी के पेट में जहां सूजन आ रही हो, वहां पर प्रतिदिन 1-2 बार मिट्टी की गीली पट्टी लगानी चाहिए। रोगी कुछ दिनों तक सोने से पहले प्रतिदिन कुनकुने पानी का एनिमा लेकर पेट को साफ करे। इस क्रिया को सुबह के समय उठने के बाद भी किया जा सकता है।
• यदि रोगी का हृदय बहुत अधिक कमजोर है, तो उसके हृदय के पास एक दिन में 3 बार कम से कम 25 मिनट तक कपड़े की ठंडी पट्टी रखनी चाहिए। जब रोगी के हृदय के पास की पट्टी को हटाते हैं, तब उस स्थान को मलकर लाल कर लेना चाहिए।
• जलोदर रोग से पीड़ित रोगी सुबह के समय सूर्य के प्रकाश के सामने बैठकर पेट की सिंकाई करे। यह क्रिया कम से कम आधे घंटे के लिए करनी चाहिए। उपचार करते समय रोगी को नारंगी रंग का शीशा अपने पेट के सामने इस प्रकार रखना चाहिए कि उससे गुजरने वाले नीले रंग का प्रकाश सीधा पेट पर पड़े।
•जलोदर रोग से पीड़ित रोगी को नारंगी रंग की बोतल के सूर्यतप्त जल को लगभग 25 उस की मात्रा में प्रतिदिन दिन में 6 बार सेवन करने से लाभ मिलता है।
अतः जलोदर रोग कष्टसाध्य है। जलोदर के मूल कारणों के शमनार्थ आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति सक्षम है। जिससे रोगी का कष्ट शनैः शनैः कम होता है। व्याधि से उपशय के लिए आधुनिक चिकित्सा के साथ उपरोक्त 2 चिकित्सा पद्धतियां चिकित्सक के मार्गदर्शन में लेने से आशातीत लाभ मिलता है।
डॉ. जी. एम.ममतानी
जीकुमार आरोग्यधाम
जरीपटका नागपुर-१४
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