फंगल इन्फेक्शन

फन्गस एक प्रकार का प्लान्ट जैसा आरगेनिज़म है जिसमें क्लोरोफिल नहीं रहता। वह अपना भोजन स्वयं नहीं बना सकता। अतः वह त्वचा व सॉफ्ट टिशू के पोषक तत्वों पर ही निर्भर रहता है, अतः वे पैरासाइट होते हैं। त्वचा में फंगल इंफेक्शन (Skin Fungal Infection) कई तरह के फफूंदे (Fungi) की वजह से होता है, जिनमें डर्मेटोफाइट्स, कैन्डिडा और यीस्ट प्रमुख हैं। फफूंद मृत केराटीन में पनपता है और धीरे-धीरे शरीर के नम स्थानों में फैलता जाता है, जैसे पैर की एड़ी, नाखून, जननांगों और स्तन। केराटीन एक प्रकार का प्रोटीन है जिससे त्वचा, नाखून और बालों का निर्माण होता है।
त्वचा हमारे शरीर को किसी भी तरह के वायरल और बैक्टेरिया के बाह्य संक्रमण से बचाती है। फंगल इंफेक्शन में त्वचा पर सफेद पपड़ी (White Spots) जम जाती है, जिसमें खुजली होती है। ध्यान न देने पर कभी-कभी इनमें बैक्टीरियल इन्फेक्शन (Bacterial Infection) भी साथ में हो जाता है। त्वचा का संक्रमण (Skin Fungal Infection) और चर्म रोग (Dermatosis) दोनों में अंतर है। त्वचा का संक्रमण रोगाणु, जीवाणु, वायरस, बैक्टीरिया, पैरासाइट और फंगस के संक्रमण से होता है। त्वचा में संक्रमण के लिए कई तरह के कीटाणु जिम्मेदार होते हैं। अगर लक्षण जानते हुए भी तत्काल उपचार नहीं किया जाए तो संक्रमण गंभीर भी हो सकते हैं। फंगल इन्फेक्शन को मायकोसिस (Mycosis) भी कहा जाता है। मनुष्य व प्राणियों दोनो में यह होता है।

फंगल इन्फेक्शन (फफूंद संक्रमण) कैसे होता है ?

  1. बरसाती मौसम, उमस और नमी भरे वातावरण में फंगल का आक्रमण बढ़ जाता है। यही कारण है कि इन दिनों अधिकतर लोग फंगल इंफेक्शन का शिकार होते हैं।
  2. स्किन इंफेक्शन का मुख्य कारण इम्यून सिस्टम यानि रोग प्रतिरोधक क्षमता का कमजोर होना है। इस मामले में त्वचा संक्रमण का जोखिम ज्यादा बढ़ जाता है।
    इसके अलावा, कवक यानि यीस्ट अक्सर गर्म, नम वातावरण में बढ़ता है। पसीने से तर या गीले कपड़े पहने हुए व्यक्ति को त्वचा संक्रमण का खतरा ज्यादा रहता है। स्किन कटने या फटने पर संक्रमित बैक्टीरिया त्वचा के गहरे परत तक फैल सकता है।


फंगल इंफेक्शन के मुख्य 4 प्रकार

एथलिट फुट (Athlete’s Foot), जॉक इच (Jock Itch) रिंगवर्म (Ringworm), ऑनीकोमायकोसिस (Onychomycosis)

1. एथलिट फुट

पैर के उंगलियों के बीच व तलवों पर होने वाला त्वचा का फंगल इंफेक्शन है। यह एक प्रकार के फंगस से होता है जिसे टीनिया (Tinea) कहते हैं। इस इंफेक्शन से ग्रस्त होने पर खुजली, जलन, त्वचा फटना एवं फफोले हो सकते हैं। दरअसल लगातार जूते पहनने से पैरों में एक प्रकार का गीलापन या नमी निर्मित होती है जिससे इसमें फंगस पनपता है अतः यह फगंस पैरों में अत्यंत कष्ट देता है। यह एथलीट (खिलाड़ी) को मुख्यतः होने के कारण एथलीट फुट कहते हैं। इसमें त्वचा सफेद दिखती है। कवक संक्रमण त्वचा में खुजली बढ़ाती है और पैर की त्वचा ज्यादा परतदार और लाल हो जाती है। तलवों में दरारें व जलन होती है और फफोले भी निकल जाते हैं। लगातर पैरों का पानी में रहना इसका प्रमुख कारण है। अतः वर्षाऋतु में यह संक्रमण अधिक होता है। यह मुख्यतः धोबी को होनेवाला पैरों का विकार (Dhobi’s Itch) है। मराठी में इसे चिखल्या कहते हैं।
बचाव
1. पैरों को पसीने से बचाएं उन्हें टॉवेल से सुखाएं व टैलकम पावडर न लगाएं।
2. पैरों में सूती व धुले हुए मोजे व फिटिंग के जूते पहने।
3. कीचड़ व गीले स्थान पर नंगे पैर न घूमें।
4. बंद जूतों का प्रयोग करने की बजाए खुली हुई चप्पल का ही प्रयोग करें, ताकि पैरों को निरंतर हवा लगती रहें।

2. जॉक इच

यह फंगल इंफेक्शन मुख्यतः वंक्षण प्रदेश (जांघ) पर नमी व दोनों जांघ के मिलने के कारण होता है। मुख्यतः फंगल डर्मेटोफाइटस् (Dermatophytes), यीस्ट या बैक्टेरिया के कारण होता है। युवाओं को सामान्यतः होता है। मधुमेह व मोटापे से ग्रस्त रुग्ण को होने की अधिक संभावना रहती है। इसमें जांघ प्रदेश (Groin) पर खुजली, लाल वर्ण के स्केल्स युक्त चट्टे होते है। अधिक इंफेक्शन होने पर घाव हो जाता है, त्वचा फट जाती है।
बचाव
1. पसीने से बचाव करें।
2. कपड़े व अंतर्वस्त्र टाइट फिटिंग के न हो।
3. व्यायाम के पश्चात शॉवर में नहाएं व साफ सुथरे कपड़े पहने।
4. अंतर्वस्त्र नियमित रुप से स्वच्छ धोएं।

3. रिंग वर्म

यह त्वचा के बाहय भाग व सिर में होता है। यह अति संक्रमण युक्त व बच्चों में सामान्यतः पाया जाता है। मुख्यतः टीनिया फंगस या बैक्टेरिया के कारण होता है। इसके कारण सिर (Scalp) लाल वर्ण का दिखता है, खुजली होती है यह अंगूठी (रिंग) के आकार का होता है। सिर में जहां यह संक्रमण होता है वहां से बाल झड़ने की समस्या होती है।
इसमें खुजली इतनी होती है कि आप उसे खुजाते ही रहें और खुजाने के बाद जलन होती है, छोटे-छोटे दाने होते हैं, चमड़ी लाल रंग की मोटी चकतेदार हो जाती हैं। दाद ज्यादातर जननांगों में जोड़ों के पास और जहां पसीना आता है व कपड़ा जहां पर ज्यादा रगड़ाता है, वहां पर होती है। वैसे यह शरीर में कहीं भी हो सकती है।
बचाव – त्वचा व पैरों को स्वच्छ व सूखा रखें। प्रतिदिन बालों को शैम्पू से धोएं जिससे सिर पर इंफेक्शन न फैलें। इसके अलावा कपड़े, टॉवेल, हेअर ब्रश, कंघी इत्यादि चीजें एक दूसरे से शेअर न करें।

4. ऑनीकोमायकोसिस

इसे नाखून का फंगल इंफेक्शन (Tinea Unguium) भी कहते हैं। यह इंफेक्शन डर्मेटोफायट के कारण होता है। यह हाथ व पैरों के नाखूनों में होता है। इसके कारण नाखून में रक्त संचारण कम हो जाता है। परिवार में इस प्रकार के इंफेक्शन का इतिहास मिलता है। इसमें नाखून मोटा व पीला ब्राउन रंग का हो जाता है। नाखून खुरदुरे व टूटे हुए रहते हैं। कभी-कभी नाखून के नीचे के भाग में डेब्रीस जमा होने के कारण गहरे रंग का हो जाता है।
नाखून में फंगल इंफेक्शन पहले नाखून के अगले हिस्से में बढ़ता है और फिर धीरे-धीरे पूरे नाखून में फैल जाता है। इसके संक्रमण से नाखून का रंग नीला पड़ जाता है और नाखून के आसपास की कोशिका इतनी मोटी हो जाती है कि जूता पहनना भी मुश्किल हो जाता है।
बचाव – हाथ व पैरों को नियमित रुप से साफ करें। जूते की सही माप पहने, बहुत पूराने जूते न पहनें। अपने नाखूनों को नियम से काटते रहें व अपना नेल क्लिपर (Nail Clipper) दूसरे से शेयर न करें।

फंगस के अन्य प्रकार

कुछ ग्रन्थों में फंगस के प्रकार उनके स्थान के आधार पर किये गए है।
फंगल इंफेक्शन त्वचा (Cutaeneous), Mucocutaneous या Systemic या इन तीनो के संयोग से होते हैं। त्वचा पर होनेवाला फंगल इंफेक्शन उत्तान (Superficial) होता है व त्वचा के Stratum Corneum स्तर पर, केश, नाखून में होता है। इसके अंतर्गत डर्मेटोफाइटोसिस होता है जो माइक्रोस्पोरम (Microsporum), ट्रायकोफायटान (Trichophyton) व एपिडर्मोफायटान (Epidermophyton) से होता है। ये किरेटिन (Keratin) प्रोटीन पर निर्भर रहता है।
पीटिरिएसिस वर्सीकलर (Pityriasis Versicolor), मेलेसेजिया फुरफुर (Malassezia Furfur) के कारण त्वचा (Cutaneous) को आक्रान्त करता है। इसके अतिरिक्त कैन्डिडा फंगस म्यूकोक्यूटेनियस (Mucocutaneous) को आक्रान्त करता है जैसे महिलाओं को होने वाला कैन्डिडिएसिस (Candidiasis) |
डर्मेटोफाइटोसिस के फंगल इंफेक्शन में टीनिया का प्रादुर्भाव होता है जो कि शरीर रचना के अनुसार जिस अंग में होता है उस प्रकार उसका नामकरण किया गया है जैसे –

1. टीनिया केपिटिस (Tinea Capitis) – सिर का भाग जहां केश होते है अर्थात मस्तक या खोपडी (Scalp) पर होनेवाला फंगल इंफेक्शन कहलाता है। यह माइक्रोस्पोरम या ट्रायकोफायटान जाति के फंगस से होता है। अधिकतर बच्चों को होनेवाला फंगल इंफेक्शन है। जांच करने पर यह शोथयुक्त या शोथरहित (Non inflammatory or inflammatory) होता है। इसमें स्लेटी रंग के चट्टे, काले रंग के बिंदु होते है। सिर का भाग चिकना (Smooth) होकर गंजापन आता है। इसके कारण केश पतले, भंगुर चमक रहित व टूटे हुए रहते है जो आसानी से टूट जाते है और सिर में गोलाकार चिकना चट्टा (गंजापन / चाई / Alopecia Areata) बढ़ता जाता है।

2. टीनिया बार्बे (Tinea Barbae) – पुरुषों में दाढ़ी के स्थान पर होनेवाला फंगल इंफेक्शन। जब महिलाओं व बच्चों के चेहरे पर होता है या चेहरे का केश रहित भाग इससे आक्रान्त होता है तब उसे टीनिया फेसि (Tinea Facei) कहते है। इसमें टीनिया कैपिटिस (Tinea Capitis) की तरह ही चट्टे होते है। साथ ही स्केल युक्त, गोलाकार चट्टे भी होते है। कभी-कभी फॉलिकुलर पस्चुल भी होते हैं जो फॉलिकुलाइटिस (Folliculitis) जैसे दिखते है। प्रयोगशाला परीक्षण के द्वारा दोनों में अंतर पता चलता है।

3. टीनिया कारपोरिस (Tinea Corporis) – इसे Tinea Glabrosa तथा Tinea Circinata भी कहते है जो कि छाती, गर्दन की त्वचा में होता है। इसके चट्टे गोलाकार होते हैं व उनमें खुजली होती है। यह अनियंत्रित मधुमेह, लिम्फोमा (कैंसर) या लंबे समय से कॉर्टिकोस्टेरॉइड लेने वालों को होता है।

4. टीनिया क्रुरिस (Tinea Cruris) – यह रिंगवर्म प्रकार का संक्रमण है जो वंक्षण प्रदेश, जनंनाग (Genitals), गुदा के चारों ओर (Perianal Areas) होता है। यह पुरुषों के जंघा प्रदेश (Groins) में सामान्य रुप से पाया जानेवाला संक्रमण है जो पुरुष कसे हुए अंतर्वस्त्र का प्रयोग करते हैं उन्हें ही यह होता है। इसमें रिंग जैसा गोलाकार चट्टा होता है, जंघा प्रदेश में होकर आसपास फैलता है। वहां की चमड़ी मोटी हो जाती है दोनों ओर के जांघ एक दूसरे से मिलने से या घर्षण होने से अति खुजली होती है। आगे चलकर उससे संक्रमण होकर एक्ज़िमा होने की संभावना रहती है।

5. टीनिया मेनस (Tinea Manus) – यह हाथ का फंगल संक्रमण है। इसमें नाखुन का अंतर्भाव नहीं होता। त्वचा स्केल्स युक्त, मोटी हो जाती है। हथेली की त्वचा भी मोटी हो जाती है। अंगुलियों के बीच की त्वचा में भी स्केल्स हो जाते है। कभी-कभी नाखून में भी संक्रमण हो जाता है। इसमें होनेवाले चट्टे एक जैसे नहीं रहते।

6. टीनिया पेडिस (Tinea Pedis) – यह पैरों का रिंगवर्म इन्फेक्शन है इसमें नाखुन को छोडकर पैर में संक्रमण होता है। टिनिया मेनस की तरह चट्टे होते है। जो लोग बंद जूते पहनते है उन्हे यह संक्रमण होने की आंशका रहती है। इस प्रकार के संक्रमण में जूते व मोजे को न पहनने की सलाह दी जाती है।

7. टीनिया अनजियम (Tinea Unguium) – यह नाखून का फंगल संक्रमण है जो कि ट्रायकोफायटान या एपिडर्मोफायटान से होता है। संक्रमित नाखून का रंग परिवर्तन होता है। नाखून भुरभुरे, अनियमित आकार के हो जाते है। थोड़ी चोंट लगने से खरोच आती है। नाखून के चारों ओर की त्वचा स्वस्थ रहती है पर कभी-कभी यह त्वचा मोटी हो जाती है।

8. पिटीरिएसिस वर्सिकलर (Pityriasis Versicolor) – यीस्ट के समान फंगस मेलेसेजिया फुरफुर के कारण पिटीरिएसिस वर्सिकलर होता है जो कि त्वचा के सिबोरिक एरिया (Seborrhoeic Area) में सेप्रोफाइट (Saprophyte) होता है। यह युवा पुरुषों में सामान्यतः होता है। इसके चट्टे हायपोपिगमेन्टेड (Hypopigmented) या हायपरपिगमेन्टेड (Hyperpigmented) व त्वचा बारिक स्केल्स युक्त हो जाती है। इसमें किसी प्रकार के लक्षण नहीं होते व छाती व पीठ पर चट्टे फैले होते है। हमारे देश में इस विकार से ग्रस्त रोगी में कन्धे, बाहु, गर्दन, पेट व चेहरे पर चट्टे होते है।

महिलाओं में योनि फंगल इंफेक्शन

महिलाओं में योनि फंगल इंफेक्शन Candid प्रजातियों में से एक विशिष्ट प्रकार के कारण होता है जिसे Candida Albicans कहा जाता है। अधिकांश फंगल इंफेक्शन को जल्दी से उपचार के साथ साफ किया जा सकता हैं। यह कैंडिडिआसिस के नाम से जाना जाता है, यह एक आम संक्रमण की तरह है।

लक्षण :- स्त्री को इस अवस्था में खुजली अथवा जलन और कई बार योनि स्राव भी महसूस करती है। योनिशोथ फंगल इंफेक्शन संक्रमण के निम्न लक्षण दिखाई देते हैं –

  • जननांग क्षेत्र की खुजली या जलन
  • अतिरिक्त प्रतिरक्षा कोशिकाओं की उपस्थिति के कारण लघु भगोष्ठ, बृहद् भगोष्ठ और पेरिनिअल भाग पर सूजन
  • योनि स्राव और चकते
  • अति गन्दी योनि गंध
  • पेशाब करने में असुविधा या जलन
  • संभोग के समय दर्द / जलन
  • कारण: पोषक तत्वों की कमी
  • स्टेरॉयड / नशीली दवाओं के दुरुपयोग का अति प्रयोग
  • मधुमेह के कारण होनेवाला फंगल इंफेक्शन
  • योनि की अस्वच्छता
  • तनाव और नींद की कमी
  • हार्मोनल परिवर्तन
  • गर्भनिरोधक गोलियां / कंडोम
  • तंग या गंदे कपड़े
  • गर्भावस्था में हार्मोन परिवर्तन के कारण योनि PH में परिवर्तन और रक्त शर्करा का उत्पादन बढ़ना

सावधानियां :- योनि क्षेत्र को साफ और सूखी रखें

  • सूती अंडरवियर और ढीली पैंट पहनें
  • मासिक धर्म के दौरान अक्सर पैड बदलें
  • स्प्रे, सुगंध, कठोर साबुन या पाउडर के उपयोग से बचें।
  • शराब आदि मादक पदार्थों का अति सेवन योनि के PH संतुलन बदल सकते हैं
  • योनि में अच्छी तरह से सेक्स के दौरान Lubricated का ध्यान रखें
  • संक्रमण को रोकने के लिए कंडोम का प्रयोग करें

आयुर्वेद मत

आयुर्वेद के अनुसार फंगल इंफेक्शन को दद्रु कहते हैं। त्वचा में कफदोष या पित्तदोष की वृद्धि हो और वहां पर दद्रु के बीज या फुई (Fungus) का संक्रमण हो जाये तो इस फुई के विपरीत बहिश्चर्म में कफधातु या पित्तधातु की प्रतिक्रिया होकर जो मण्डलाकार रक्त वर्ण कण्डूयुक्त छोटी-छोटी पिडिकायें निकलती हैं उन्हें दद्रु मण्डल या दाद कहते हैं। मराठी में गजकर्ण कहते है।
दद्रु मात्र पर लगाने के लिए कुछ उपयोगी योग निम्न हैं। सुविधानुसार 2-3 नुस्खे अपनाएं।
योगरत्नाकर के अनुसार
1) कासमर्दादि लेप कासमर्द (कसौंदी) की जड़ को –
सौंबीर (कांजी) के साथ पीसकर लेप करने से दाद तथा किट्टिभ नामक कुष्ठ को नष्ट करता हैं
2) मूलकबीजादि लेप मूली तथा सरसों का बीज,
लाख, हल्दी, दारूहल्दी, चकवड़का बीज, श्रीवेष्टक (राल), व्योष (सोंठ, पीपर, मरिच), वायविडंग तथा कूठ समभाग, इन सबको गाय के मूत्र के साथ पीसकर लेप करे। यह सभी प्रकार के दाद, सिध्म रोग, किटिभ कुष्ठ, पामा तथा भयंकर कपाल कुष्ठ को नष्ट करता है।
3) अमलतास पत्ते का योग अमलतास के पत्तों को कांजी के साथ पीसे और लेप लगाये, यह लेप लगाने से दाद, किटिभ कुष्ठ तथा सिध्म रोग को अवश्य ही दूर करता हैं।
4) चकवड़ के बीज का प्रयोग चकवड़ का बीज, आंवला, राल तथा सेंहुड़ समभाग, इन सबको कांजी के साथ पीसकर उबटन लगायें। यह दाद के लिये उत्तम उबटन है।

अनुभूत अन्य लेप

  • चकवड़ और हरड़ को कॉजी में पीस कर लेप करने से दाद आराम हो जाते है।
  • चकवड़ के बीज, मूली के रस में पीस कर लेप करने से दाद आराम हो जाते है।
  • सहँजने की जड़ की छाल पानी में पीस कर लेप करने से दाद आराम हो जाता हैं
  • काकमाची के पत्ते अथवा कनेर के पत्ते मठ्ठा में पीस कर लेप करने से दाद-खाज आराम हो जाते हैं।
  • तुलसी के पत्ते व 4-5 कालीमिर्च पीसकर दाद लेप करने से लाभ होता है।
  • तुलसी के पत्ते का रस, गाय का घी, चूना समभाग लेकर कांसे के थाली में लेकर खरल करके मलम बनाएं व दिन में दो-तीन बार लगाएं।
  • तुलसी के पत्ते का रस चट्टे पर घिसकर कर लगाएं।
  • गंजकर्ण के चट्टो पर नौसादर व लहसुन की कली को पीसकर कर चटनी बनाएं व उस लुगदी को दिन में दो बार लेप करें व उस पर कपड़े की पट्टी बांधे । निश्चित ही फायदा होता है।
  • नींबू के रस में सुहागा व नवसादर मिलाकर मलहम बनाएं व चट्टे पर दो-तीन बार नियमित लगाएं।
  • गजकर्ण के चट्टे पर करज तेल, कपूर व गंधक मिलाकर सुबह-शाम नियमित लगाएं। कुछ ही दिनों में लाभ होगा।
  • अंजीर अथवा मदार (आक) का दूध दाद पर लगाने से दाद ठीक हो जाता है।
  • गेंदे के पत्तों को पीसकर लेप करने से या उनका रस लगाने से यह रोग दूर होता है।
  • गुलाबजल व नींबू का रस समान मात्रा में लगाने से दाद दूर होता हैं
  • अपने मुँह की (सुबह उठते ही) लार को हाथ से दाद पर मल लें। दो-तीन दिन में ठीक हो जाता है।
  • मुरदासिंगी और नीला थोथा को घिस कर दाद पर लगावे दाद मिटता है।
  • आक के पीले पत्तों का रस निकाल कर उसमें नवसादर गंधक, सज्जी सम भाग मिला ले। फिर दाद पर लगावे तो दाद अवश्य मिटता है।
  • भूना हुआ सुहागा और भुनी हुई फिटकरी समान मात्रा में लेकर चूर्ण बनायों और दाद पर लगायें।
  • गजकर्ण में चट्टे को सूखा रखने के लिए संगजीरा का पाउडर सुबह-शाम घिसकर लगाएं।
  • अधिक खुजली होने पर वचा व कपूर को घिसकर लगाएं।
  • करंज तेल, नीम तेल या बावची तेल में कपीला चूर्ण व गंधक चूर्ण मिलाकर रात में लगाएं व सुबह स्नान करें।
  • प्रतिदिन अधिक गर्म पानी से नहाएं
  • नागकेशर, सोमल (रसोत्तेजक पर्पटी), कोष्ठ, मोरचून, गैरिक, मरिच, मैनशिल, गंधक प्रत्येक 10 ग्रॉम व शुद्धपारा 10 ग्रॉम 1 पाव गोघृत मिलाकर तांबे के बर्तन में रगड़कर मिश्रण करें व मलहम तैयार होने पर लगाएं।
  • नीमपत्र, करमर्द मूल / साल व शमीपत्र मिलाकर लेप दाद पर लगाने से लाभ होता है।
  • सिर पर दद्द्रु मण्डल व्यापक रुप में हो तो चक्रमर्द बीजों में कुष्ठ चतुर्थांश मिला कर सिरके में पीसकर उस कल्क को सिर पर बांधना चाहिये।
  • गंधक, सुहागा, तुत्थ, कर्पूर, चन्दन समभाग चूर्ण लगाएं।
  • सिन्दूरादि प्रलेप – (सिन्दूर, दोनों जीरे, दोनों हरिद्रा, मनसिल, मरिच, गंधक, पारद) का प्रयोग करें।
  • माहे वरलेप (वैद्यामृत) – पारा, गंधक, हरताल,
  • मनसिल, मरिच, दोनों हल्दी, दानों जीरे, सिन्दूर, तुत्थ, पंवाड के बीज, बावची समान-समान आदि किसी चूर्ण को दो गुना धोये हुए घृत या वेसलीन में मिलाकर लगाने से दद्रु नष्ट हो जाता है।
  • फिटकरी तथा सुहागे की खील (फुलाकर) मिलाकर लगाने से दद्रु शान्त होता है।
  • विडंगादि लेप – विडंग, पंवाड, कुष्ठ, हल्दी, सैन्धव, सरसों समान-समान को जल से पीसकर लेप लगाने से लाभ होता है।
  • लाक्षादि लेप – लाख, कुष्ठ, सरसों, हल्दी, पंवाड तथा मूली के बीज, गंधविरोज, मरिच समान भाग तक्र से लेप करें।
  • चिखली में टंकण, गंधक चूर्ण, हरताल व काली मिर्च चूर्ण एकत्रित कर सूखा ही मिलाकर लगाएं।
  • करंज तेल, गंधक व कपूर मिलाकर लगाएं।
  • चिखली के सूखने पर शतधौत घृत सुबह-शाम लगाएं या संगजीरा का पावडर लगाने से लाभ होता है।
  • ऊंगलियों के बीच में नमक को तेल के साथ घिसकर लगाएं। थोड़ी देर के लिए तकलीफ होगी परंतु आराम शीघ्र होगा।
  • इंफेक्शन होने पर बराबर मात्रा में पानी और सिरका मिलाकर पैरों को दस मिनट उसमें रखें फिर पोंछकर, सुखाकर, एंटी फंगल क्रीम लगाएं।
  • जिंक ऑक्साइड युक्त क्रीम एवं फंगल क्रीम को मिलाकर लगा सकते हैं।
  • सिंघाड़े, काकड़ासिंगी की जड़, हाऊबेर और भारंगी की जड़ – इनको एकत्र मिला कर और पीस कर पीने से दाद अवश्य आराम हो जाता है।

इन सब दवाइयों को कूट-पीसकर कपड़छान कर ले और फिर नींबू या पंवार (चकौड़) के अर्क में घोटकर गोली बना ले और धूप में सुखा ले। जरूरत के समय एक गोली को नींबू के रस या पानी में घिसकर दाद पर लगाने से लाभहोता है।

औषधि

  • फंगल इन्फेक्शन से ग्रस्त व्यक्ति ने मंजिष्ठा, अनंतमूल (सारिवा) व खदिर का अष्टमांश काढ़ा बनाकर 20-30 ml सुबह शाम लेने से लाभ होता है।
  • आरग्वधादि चूर्ण या काढा सेवन करने से लाभ होता है।

इसके अलावा गंधक रसायन, रसमाणिक्य, सूतशेखर रस, कैशोर गुग्गुल चिकित्सक के मार्गदर्शन में लेना चाहिए।

सावधानियां

  1. अपनी त्वचा विशेषतः संधिस्थल को साफ व सूखा रखें।
  2. प्रभावित हिस्सों को यथासंभव सूखा रखने की कोशिश करनी चाहिए, टैल्कम पाउडर का उपयोग हरगिज नहीं करें।
  3. प्रतिदिन 8-10 गिलास पानी पीयें।
  4. प्रतिदिन हाथों को स्वच्छ धोएं व सूखा रखें।
  5. कॉटन के ढीले कपड़े पहने। मोजे सूती व साफ पहननी चाहिए। टाइट फिटिंग के कपड़े न पहने।
  6. फंगल इंफेक्शन में प्रभावित स्थान पर डस्टिंग पावडर का प्रयोग करें।
  7. स्वयं की स्वच्छता की वस्तुएं जैसें साबुन, रेजर, नेल क्लीपर, अंतर्वस्त्र, टॉवेल दूसरे से शेअर न करें।
  8. मीठे व कोलेस्ट्राल बढ़ानेवाले पदार्थ का सेवन न करें।
  9. अस्वच्छ, कीचड़ वाले स्थानों पर नंगे पैर न घूमें। पैरों को खुले वातावरण में रखना चाहिए।
  10. जो स्किन केअर प्राडक्ट तैलीय हो, उन्हे प्रयोग में न लाएं।
  11. रोजाना सही तरीके से नहाएं। नहाने के पानी में कुछ बूंदे एंटिसेप्टिक मिलाएं।
  12. त्वचा को सूखा रखें, ज्यादा समय तक गीला न रहने दें।
  13. डॉक्टर के निर्देशानुसार औषधि लें।

परहेज :- अत्यधिक मिर्च, मसाले, मिठाई, तेल, अचार, खट्टी चीजे खाना बंद करना चाहिए। क्योंकि यह पदार्थ रोग को बढ़ाते है। पेट साफ रखें और कब्ज न होने दें।
इस प्रकार उपरोक्त दैनंदिन जीवन में महत्वपूर्ण सावधानियां बरतने से फंगल इंफेक्शन से बचा जा सकता है व फंगल इंफेक्शन होने पर आयुर्वेद चिकित्सा सें लाभ होता है। फंगल इंफेक्शन के रोगी को पंचकर्म के द्वारा शरीर शुद्धि अवश्य करना चाहिए। विरेचन व रक्तमोक्षण (जलोकावचरण) से शरीर व रक्त शुद्ध होकर फंगल इंफेक्शन से राहत मिलती है।

Dr Anju Mamtani

डॉ. अंजू ममतानी
‘जीकुमार आरोग्यधाम’

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