
आयुर्वेद में 13 प्रकार के अधारणीय वेगों का वर्णन है शास्त्रानुसार मल के वेग को नियमित रुप से त्याग करना निरोगी शरीर के लिए हितकारी है क्यों कि नियमित मल त्याग होने से मन शांत रहता है। दिन भर सक्रियता, स्फूर्ति, रहती है, कार्य में मन लगता है, एकाग्रता रहती है। पेट में गड़बड़ी, मरोड़, कब्ज, गैस बनना, अपच इत्यादि अति सामान्य समस्याएँ है। पेट की विभिन्न समस्याएँ, रोग अनेकानेक कारणों से हो सकते है। इनमें से इरिटेबिल बॉवेल सिन्ड्रोम (आई.बी. एस.) सबसे सामान्य है।
वर्तमान में अव्यवस्थित जीवनचर्या के फलस्वरुप असमय खान-पान, देर रात जागना, सुबह देर से उठना बढ़ता हुआ मानसिक तनाव, व्यसन के अधीन होना तथा प्रतियोगिता के वातावरण में मानसिक तनाव से ग्रस्त होने से व्यक्ति के स्वास्थ्य का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहां है। अनेक प्रकार की व्याधियों ने इंसान को अपनी चपेट में लें लिया है। पेट से संबंधित अनेक बीमारियां भी आम तौर पर पाई जा रही हैं। आहार की अशुद्धता के कारण भी हमें पेट की तकलीफों का सामना करना पड़ रहा है। पेट की तकलीफ के लिए मुख्यतः आहार का अपचन ही जिम्मेदार है। यहां हम पेट से संबंधित रोगों के अंतर्गत इरिटेबल बोवेल सिन्ड्रोम / आई.बी.एस. (Irritable bowel syndrome / I.B.S.) की जानकारी प्राप्त करेंगे।
इरिटेबल बॉवेल सिंड्रोम एक अत्यंत जटिल रोग है। यह रोग पक्वाशय व अन्नवह स्रोतस की कार्यात्मक विकृति है। इस रोग में रचनात्मक या अन्य प्रकार के कारण जिम्मेदार नहीं रहते है। यह साधारणतः उम्र 20 से 40 के बीच में पाया जाता है। यह एक चिरकारी एवं जटिल लक्षणों का समुदाय है, जिसमें पक्वाशय की कार्य प्रणाली ठीक तरह से कार्य नहीं करती। साथ ही उदरशूल जैसे लक्षण भी उपलब्ध रहते है। इसका आधुनिक मतानुसार कोई भी जैविक कारण नहीं पाया गया। अन्नवह स्रोतस में अतितीव्र गॅस्ट्रोकोलीक रिफ्लेक्स, छोटी आँत का संकुचन के कारण होता है। मानसिक कारण जैसे भय, टेंशन, चिंता यह सभी साथ ही कुछ अन्न पदार्थ भी आय.बी.एस. का अटैक आने के लिए कारणीभूत रहते है।
अनुमान है कि वयस्क आबादी के करीब 10 से 20 प्रतिशत व्यक्ति विभिन्न स्वरूपों में इस गंभीर रोग की चपेट में है। डॉक्टर्स के द्वारा सामान्य रूप से निदान की जाने वाली व्याधि I.B.S. है। भारत की जनसंख्या के 20 प्रतिशत लोगों तथा अमेरिकन में से 1 में यह रोग पाए जाने का आंकड़ा प्राप्त है। पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक ग्रसित होती हैं। 50 प्रतिशत रुग्णों को 35 वर्ष की उम्र से पहले यह व्याधि होती है।
अधिकांश भारतीय गंभीरता से इस रोग की चिकित्सा नहीं करवाते या देशी दवाओं, पाचक या कब्जहर चूर्ण आदि का सेवन करते हैं और रोग को जीवन का अंग मान लेते हैं। हालांकि I.B.S. में दीर्घकालीन पेट दर्द और दस्त या कब्ज सबसे प्रमुख लक्षण हैं। रुग्ण को शारीरिक व मानसिक रूप से विचलित करने वाला यह रोग अंतड़ी को स्थायी रूप से नुकसान नहीं पहुंचाता और न ही इससे कोई कैंसर जैसी घातक बीमारी होती है। अधिकांश रोगी स्वयं ही आहार व औषधि के द्वारा इसे नियंत्रण में रखना सीख जाते हैं पर कुछ रोगियों के लिए यह तकलीफदेह रोग होता है। वे अपना दैनिक कार्य नहीं कर पाते, सामाजिक कार्यक्रम में हिस्सा नहीं ले पाते या अल्पावधि की यात्रा तक नहीं कर पाते।
क्यों होता है रोग

ऐसे रोगी कुछ विशिष्ट भोजन और भावनात्मक तनाव के प्रति अति संवेदनशील होते हैं अतः इस रोग का घनिष्ठ संबंध भोजन व मानसिक स्थिति से होता है। जब यह गरिष्ठ मसालेदार या तला भोजन सेवन करते हैं, तो आंतें संवेदनशील होने के कारण प्रतिक्रिया करती हैं। इनका पेट फूल जाता है, दस्त हो सकते हैं। तनाव व चिंता होने पर इनकी आंतों की संवेदनशीलता बढ़ जाती है और लक्षण तीव्र हो जाते हैं।
पाचन संस्थान के रोगों में सबसे अधिक दिखाई देने वाले रोगों में अम्लपित्त, आमाशय का घाव, ग्लोबस हिस्टीरिकस (Lump in throat), अल्सरेटिव कोलायटिस और आई.बी.एस. है। I.B.S. नामक व्याधि को अनेक नामों से पहचाना जाता है-जैसे स्पास्टिक कोलोन, म्यूकस कोलाइटिस, नरवस स्टमक इत्यादि। यह रोग सूजन को न बढ़ाने वाला, आगे नं विकसित होने वाला लेकिन दीर्घकाल तक रहने वाला आंतों का साधारण लगने वाला रोग है। यह विविध रूपों में दिखाई देता है।
मानसिक तनाव जिम्मेदार
काल के प्रवाह में एकत्रित होनेवाली अचेतन मन की उलझनें तनाव के रूप में हाईपोथेलेमस के जरिये पाचन संस्थान पर असर कर आईबीएस का रूप धारण करती हैं। आई.बी.एस. नाम की तकलीफ होने की संभावना वाले रोगी बेचैन, अति संवेदनशील, भयभीत और चिंतित होते हैं।
आई.बी.एस की समस्यायें शारीरिक रोग के कारण न होकर आंतरिक कारणों से होती है। संभवतः लक्षण आंतों के अतिसंवेदन शील होने के कारण होते हैं, बदपरहेजी, तनाव चिंता, जीवन, अव्यस्थित होने इत्यादि कारणों से विविध लक्षण विभिन्न गंभीरता में हो सकते है। अनेक व्यक्तियों के साथ चिंता घबराहट, भयभीत रहने की समस्याएँ या और बिना शारीरिक रोग के कारण विभिन्न लक्षणों-सिरदर्द, पैर दर्द, बदन दर्द, कमजोरी, पेशाब बार-बार होने की हाजत अपच, पीठदर्द, महिलाओं में मेनसेज में दर्द इत्यादि लक्षण भी हो सकते हैं। रोग के कारण इनकी मल त्याग की आदतं बदलाव आ जाता है। पेट में मरोड़ के साथ दर्द होता है, मल के साथ आँव (म्यूकस) निकलता है, मल त्याग के बाद भी पेट साफ नहीं हुआ का अहसास होता है। इनके मल में खून नहीं निकलता स्वयं को बीमार समझने के बाद भी इनका वजन कम नहीं होता।
लक्षण :- I.B.S. से ग्रस्त भिन्न-भिन्न रुग्ण एक जैसी शिकायत नहीं करते, बल्कि हर मरीज में पाचन से संबंधित भिन्न लक्षण होते हैं। I.B.S. के लक्षणों में विभिन्न स्वरूप हो सकते हैं।
पेटदर्द, पेट का फूलना, पेट का पूरी तरह साफ न होने का हमेशा एहसास होना व इससे चिंतित होना और बेचैनी इस व्याधि के मुख्य लक्षण हैं। हालांकि अलग-अलग व्यक्ति के लक्षणों में भिन्नता रहती है। कुछ रोगियों को आंव के साथ मल प्रवृत्ति तथा किसी-किसी को अतिसार की शिकायत रहती है। रोगी में कुछ समय के लिए लक्षण दिन प्रतिदिन बढ़ते जाते हैं।
दस्त और कब्ज – इसमें मरीज कुछ दिनों तक कब्जग्रस्त होते हैं, कुछ दिन हाजत महसूस नहीं होती या कड़ा होता है। पेट साफ नहीं होने की अनुभूति के बाद अचानक किसी दिन पतले दस्त कई बार हो जाते हैं। इनको भोजन के बाद भी मल त्याग की इच्छा होती है। पहले इनको पेट के निचले हिस्से में दाहिनी या बायीं तरफ मरोड़ के साथ पेट दर्द होता है। फिर मल त्याग के बाद राहत मिल जाती है। यह चक्र चलता रहता है।
घबराहट के कारण दस्त – इन मरीजों में भोजन के पश्चात्या हल्का तनाव, चिंता होने पर भी मल त्याग की इच्छा होती है। पहले दस्त के साथ ही पेट में हल्का मरोड़ भी हो सकता है।
कब्ज – कुछ मरीजों में कब्ज की प्रधानता होती है। इन्हें रोजाना मल त्याग नहीं होता, कड़ा होता है और साफ नहीं होता।
अपचन – इन व्यक्तियों में कुछ भोजन तत्वों से विशेष रूप से संवेदनशीलता होती है। इन्हें भोजन सेवन करने के बाद पेट फूलने, गैस बनने, पेट में हल्की मरोड़, डकारें, दस्त आदि हो सकते हैं।
अन्य व्यक्तियों में लक्षण विभिन्न रूप से मिले जुले हो सकते हैं। तनाव, चिंता, भोजन में बदपरहेजी, ठंडा-गरम या गरिष्ठ भोजन, मिर्च मसाले सेवन, ज्यादा मात्रा में कॉफी या चाय पीने से यह लक्षण बढ़ सकते हैं। अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि इस व्याधि से ग्रस्त महिलाओं में मासिक धर्म के समय अपचन संबंधी लक्षण अधिक दिखते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि हार्मोन्स की वजह से लक्षण बढ़ते हैं। साथ ही ऐसे रुग्ण मानसिक तनाव व अवसाद से ग्रस्त रहते हैं।

आई.बी.एस. के लक्षणों को 3 वर्गों में विभाजित किया गया है।
1) कब्ज संबंधी 2) अतिसार संबंधी 3) कब्ज तथा अतिसार दोनों से संबंधित
उदरशूल महत्वपूर्ण लक्षण है। अन्न उदरशूल को उत्तेजित करता है और मल त्याग के बाद उदरशूल कम हो जाता है। इसके अलावा पेट में जलन, डकार आना, गलें में अटकने जैसा महसूस होना, चक्कर आना, धड़कन बढ़ना बार-बार पेशाब लगना, कमजोरी जैसे लक्षण दिखाई देते हैं। रोग के लक्षणों की विविधता के कारण चिकित्सक के लिए रोग का निदान करना कई बार मुश्किल होता है।
शोधकर्ता अब तक इसका कारण ज्ञात नहीं कर पाए हैं। अध्ययन के द्वारा पाया गया है कि कुछ रुग्णों की बड़ी आंत विशेष प्रकार के आहार के प्रति अति संवेदनशील होती है। मानसिक तनाव से ग्रस्त रुग्णों में भी आई.बी.एस. के लक्षण मिलते हैं।
इसमें रुग्ण की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। इसके रुग्ण की बड़ी आंत की गति सामान्य नहीं रहती बल्कि कम-ज्यादा होती रहती है।
बड़ी आंत का स्तर Epithelium (उपकला) कहलाता है आई.बी.एस. से ग्रस्त रोगी में नाड़ी संस्थान व रोग प्रतिरोधक क्षमता का प्रभाव Epithelium पर पड़ता है, जिससे अंतड़ी के भीतर आने वाले आहार द्रव्य का पाचन व शोषण ठीक से न होकर कभी कब्ज व कभी अतिसार होता है।
रिसर्च से ज्ञात हुआ है कि सिरोटोनिन (Serotonin) अंतड़ियों के प्राकृत कार्य से जुड़ा होता है। यह एक ऐसा रसायन है, जो शरीर के एक भाग से दूसरे भाग तक संदेश भेजता है। 95 प्रतिशत पाचन संस्थान (GI Tract) में होता है। व 5 प्रतिशत मस्तिष्क में स्थित होता है। बड़ी आंत के भीतरी स्तर पर स्थित कोशिकाओं (Cells) का कार्य Transporter का होता है। वे Serotonin को बड़ी आंत से बाहर ले जाती हैं। IBS से ग्रस्त व्यक्ति में अंतड़ी की गति कम होती जाती है। अतः Serotonin की मात्रा कम-ज्यादा होती रहती है। फलस्वरूप ऐसे रोगी को अपचन की शिकायत होती है।
रिसर्च में पाया गया है कि आई.बी.एस. का कारण पाचन संस्थान में होने वाला संक्रमण भी है। ज्ञात हुआ है कि जिन् रुग्णों को आंत्रशोथ (Gastro Enterits) हो चुका है, कभी-कभी उनमें भी उक्त लक्षण मिलते हैं।
कुछ रुग्णों में सीलियक रोग (Celiac Disease) के भी लक्षण मिलते हैं। इससे ग्रस्त रुग्ण Gluten (जो गेहूं व बारली में पाया जाता है) को पचा नहीं पाते। एक रक्त परीक्षण के द्वारा सीलियक रोग का निदान होता है।
आई.बी.एस. का निदान
आई.बी.एस.के निदान के लिए किसी प्रकार की जांच नहीं है। केवल रुग्ण के पूर्ण इतिहास व लक्षणों की जानकारी के आधार पर ही निदान होता है। आई.बी. एस. की समस्याएँ किसी रोग के संकेत नहीं मिलते। इस रोग में रुग्ण व वैद्य भी अमीबियासिस, एसिडिटी, अल्सर से भ्रमित रहते हैं जबकि लक्षणों के आधार तथा जाचों को पूर्णतः सामान्य होने पर मरीज आई.बी.एस. ग्रसित माने जाते है।
जब लक्षण तीन माह से ज्यादा लगातार या बार-बार होते है।
पेट दर्द होता है जिससे मल त्याग से राहत मिलती है।
मल कई बार करना पड़ता है, अथवा मुलायम पतला अथवा कड़ा होता है।
करीब एक चौथाई दिनों में दिन में कई बार मल त्याग की हाजत होती है अथवा कड़ा होता है।
मल के साथ आंव आती है। पेट फूलता है।
उपचार
आई.बी.एस. की तकलीफ को शीघ्रातिशीघ्र ठीक करने के लिए भोजन, पाचन, व्यायाम, दिनचर्या और नींद का समायोजन करना आवश्यक है। अत्यधिक मानसिक तनाव को भी टालना चाहिए। उसी तरह आई.बी.एस. की तकलीफ बढ़ाने वाले तत्व के अलावा भोजन के कुछ पदार्थ टालना जरूरी है। यह रोग आपके आहार और जीवन शैली में परिवर्तनों को प्रशासित करके नियंत्रित किया जा सकता है। कुछ को परामर्श और दवा की भी आवश्यकता होती है।

आवश्यक निर्देश
- कुछ रुग्णों को दूध से बने पदार्थों से आई.बी.एस. होता है। ऐसे रुग्ण दूध से बने पदार्थों का त्याग करें।
- आहार में परिवर्तन कर संतुलित आहार के सेवन की आदत डालें। जिसमें अंतड़ियों के कार्य में सुधार होगा।
- चाय-कॉफी, मिर्च मसाले व बादी पदार्थों का सेवन बंद करें।
- मद्यपान का व्यसन हो, तो उसे भी त्यागें।
- फूलगोभी, पत्तागोभी सब्जियां व दालों से पेट का फूलना, गैस की तकलीफ बढती है। ऐसे पदार्थों का त्याग करें।
- सोडा व शीत पेयों का सेवन भी गैसेस बढ़ाता है।
- आहार का सेवन धीरे-धीरे करें। जल्दी-जल्दी आहार लेने से पेट में गैस बढ़ सकती है।
- ऐसा आहार ही लें, जिसमें फैट कम व कार्बोहाइड्रेट की प्रधानता हो, जैसे-पास्ता, चावल साबुत अनाज, सब्जियां ।
- रोगी की जीवन शैली, भोजन की आदतों में बदलाव आवश्यक है। इनको मिर्च, मसालेदार, गरिष्ठ, तलें भोजन का सेवन कम से कम करना चाहिए।
- रोगी को एक साथ ज्यादा मात्रा में भोजन नहीं करना चाहिए, बल्कि थोड़ी-थोड़ी मात्रा में दिन में 4-5 बार भोजन करें।
- यदि कब्ज प्रधान समस्या है, तो भोजन में रेशेयुक्त भोज्य पदार्थ, सब्जियां, फल, सलाद, साबुत दालें, चोकर सहित आटे की रोटी, ब्राउन ब्रेड का सेवन करना चाहिए।
- जीवन को शांति से गुजारना सीखें, हड़बड़ी चिंता, तनाव से बचें।
औषधियां
आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र में वर्णित ग्रहणी रोग के लक्षण आई.बी.एस. के लक्षणों से मिलते-जुलते हैं। अतः शास्त्रों में वर्णित ग्रहणी रोग की लंघन, दीपन व अग्निवर्धक चिकित्सा दी जाती है।
- बेल फल, सोंठ, दाड़िम, त्रिकटु आदि औषधियां उपयोगी हैं।
- इसबगोल, हरीतकी, सेंधा नमक, यष्टिमधु व ब्राह्मी का समभाग चूर्ण 1 चम्मच रात को सोते समय लें।
- भोजन के पहले चित्रकादि वटी 1-1 सुबह-शाम चूसें।
- बिल्वादि योग – बिल्व, मुस्ता, इन्द्रयव, तगर, मोचरस चूर्ण की सम भाग मात्रा लेकर 5 ग्राम सुबह-शाम दूध के साथ देने से राहत मिलती है।
- अजमोदादि चूर्ण – 5 ग्राम सुबह-शाम लेने से रुग्ण को पाचन संबंधी तकलीफ से छुटकारा मिलता है।
- चव्यादि चूर्ण चव्य, चित्रक, बेल का गूदा तथा सोंठ समभाग, इन सभी का चूर्ण मट्ठा के साथ सेवन करने से दुःख कारक ग्रहणी रोग को नष्ट करता है।
- भल्लातक क्षार-शुद्ध भल्लातक, त्रिकटु (सोंठ, पीपर, मरिच), त्रिफला (हरें, बहेड़ा, आंवला) तथा सेंधानमक, सौवर्चल नमक, विडनमक, दो-दो पल (प्रत्येक 100 ग्राम), इन सभी को गाय के गोबर के उपलों से अन्तर्धूम जलाये। यह भल्लातक क्षार घी के साथ पान करने या भोजन में मिलाकर खाने से हृदयरोग, पाण्डुरोग, ग्रहणी, गुल्मरोग, उदावर्त तथा शूल को दूर करता है।
- शुण्ठयादि काढ़ा-सोंठ, नागरमोथा, अतीस तथा गुडूची समभाग लें। इन सबका काढ़ा मन्दाग्नि तथा ग्रहणी में सेवन करने से लाभ होता है।
- द्राक्षासव / तक्रारिष्ट / सारस्वतारिष्ट / मुस्तकारिष्ट 2-2 चम्मच लेने से लाभ होता है।
- इसके अलावा ग्रहणी रोग में ग्रहणी गज केसरी रस, ग्रहणी कपाट रस, पंचामृत पर्पटी, स्वर्ण पर्पटी जातिफलादि चूर्ण, व्योषादि चूर्ण, शंख वटी, शंखपर्पटी, प्रवाल पंचामृत, चव्यादि चूर्ण, बिल्वादि चूर्ण, बिल्वावलेह, बेल का मुरब्बा व वृद्ध गंगाधर चूर्ण के उत्तम परिणाम मिलते हैं।

आई.बी.एस. में उपयोगी मट्ठा
मट्ठा हल्का होने के कारण ग्रहणी के रोगियों के लिये जठराग्नि-दीपक तथा ग्राही है। यह मधुरपाकी होने से पथ्य है और पित्त को दूषित नहीं करता। कषाय रसप्रधान, उष्ण, विकासी तथा रूक्ष होने से कफ में हितकर है। स्वादु तथा अम्ल रसप्रधान तथा सान्द्र होने से शीघ्र वामकारक है और अविदाही है। अरुचि होने पर बिजौरा नींबू का केशर घी तथा सेंधानमक मिलाकर मट्ठा का प्रयोग प्रातःकाल भोजन के समय करें। चित्रक, अजमोद, सेंधानमक, सोंठ तथा मरिच, इन सबका चूर्ण अम्ल मट्ठा के साथ पान करें। 200 ग्राम छाछ में 3 ग्राम पंचकोल (काली मिर्च, पिपली, पिपलामूल, चव्य, चित्रक) मिलाकर सेवन कर सकते हैं। यह एक सप्ताह पान करने से जठराग्नि के बल को बढ़ाता है तथा ग्रहणी, अतिसार तथा शूल को नष्ट करता है।
जठराग्नि बढ़ाने के लिये तक्र हरीतकी मट्ठा 3 कंस (12 किलो में सेन्धा नमक 2 कुण्ड अर्थात् 500 ग्राम) तथा गुठलीरहित हर्रे 60 नग और घृत, तैल, सौंठ एवं चित्रक प्रत्येक 250 ग्राम मिलाकर पकावें। सिद्ध हो जाने पर जीरा, मरिच, पीपर तथा अजवायन 50 ग्राम का चूर्ण मिला दें। इसे सेवन करने से जठराग्नि प्रदीप्त होती है और पाचन संबंधी सभी विकारों को दूर करती है।
योग चिकित्सा
आई.बी.एस. से ग्रस्त रुग्ण में तनाव व अवसाद की स्थिति होने के कारण योग चिकित्सा के उत्तम परिणाम मिलते हैं क्योंकि योग शरीर के साथ-साथ मन को प्रभावित करने वाली चिकित्सा है। योगाभ्यास में योगनिद्रा, शिथिलीकरण, शवासन, धनुरासन, हलासन, पवनमुक्तासन, सर्वांगासन, सुप्तवज्रासन, मत्स्यासन, मकरासन, शशांकासन, उत्थितविवेकासन, ओंकार प्राणायाम, ध्यान के नियमित करने से तनाव से दूर रहा जा सकता है।
पंचकर्म चिकित्सा
तनाव निवारण व रोग मुक्ति के लिए पंचकर्म की स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन, बस्ति, शिरोधारा व नस्य उपक्रम करने से आशातीत लाभ मिलता है।
निष्कर्ष
उपरोक्त व्याधि शारीरिक संरचना में व्यवधान होने के अलावा मानसिक कारणों से भी उत्पन्न होती है। यद्यपि इसे गंभीर रोगों की श्रेणी में नहीं रखा जाता, फिर भी इसकी अनदेखी करना, भविष्य में कई जटिल समस्याओं को जन्म दे सकता है। अतः लक्षण प्रकट होते ही अनुभवी चिकित्सक के मार्गदर्शन में इसका उपचार कराना नितांत आवश्यक है। यदि भोजन की आदतों, सोच को बदला जाए तो आई.बी. एस. से ग्रस्त रोगी बिना कष्ट के स्वस्थ रह सकता है।

डॉ. जी.एम. ममतानी
एम.डी. (आयुर्वेद पंचकर्म विशेषज्ञ)
‘जीकुमार आरोग्यधाम’,
238, नारा रोड, गुरु हरिक्रिशनदेव मार्ग,
जरीपटका, नागपुर-14 फोन : (0712) 2645600, 2646600, 2647600
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