अंकुरित अन्न को जीवंत आहार की संज्ञा दी गई है। भुने हुए बीज खेत में बोने पर न तो वे उगते हैं और न पौधों के रूप में विकसित होते हैं, वरन जमीन पर पड़े पड़े सड़ जाते हैं। लगभग यही स्थिति आग पर पकाए जाने वाले खाद्यान्न की होती है। इस तरह के खाद्य पदार्थ निष्प्राण एवं सत्त्वहीन बनकर रह जाते हैं। आवश्यक शक्ति अर्जित करने के लिए अंकुरित अनाजों को आहाररूप में ग्रहण करने की कला ऐसी है, जिसका हमारे जीवन, काया और स्वास्थ्य से गहरा संबंध है। इससे जीवनीशक्ति का अभिवर्धन करने वाले अनिवार्य पोषक तत्त्व प्रचुर मात्रा में शरीर को तो मिलते ही हैं, साथ ही अधिक खाने और पेट पर अनावश्यक बोझ लाद लेने की व्यथा से भी हम बच जाते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से अंकुरित आहार उत्तम होने के साथ ही श्रम, समय, ईधन और पैसे की बचत भी करता है।
आहारविज्ञानियों का कहना है कि सूखे अन्नों, दलहनो और तिलहनों में केवल पृथ्वीतत्त्व की बहुलता होती है। अंकुरित हो जाने पर प्रकृति उन पर अपने विशिष्ट अनुदान बरसाने लगती है और पृथ्वीतत्त्व के साथ-साथ उनमें जल, वायु, सूर्य और प्रकाशतत्त्व भी परिपूर्ण मात्रा में भर जाते हैं। इसके अतिरिक्त प्रकृति अपनी कला और रचना द्वारा उन बीजों को अतिरिक्त प्रोटीन, विटामिन, चिकनाई एवं खनिज लवण जो जीवनतत्त्वों से भी लबालब भर देती है। अंकुरण के उपरांत अब वे मात्र अनाज नहीं रह जाते, वरन अन्न, फल शाक-सब्जी तीनों की भूमिका एक साथ निभाने लगते हैं। अंकुरित आहार सस्ता भी पड़ता है और पाचन एवं स्वास्थ्य संवर्द्धन की दृष्टि से औषधि का भी काम करता है। अतः जहाँ तक हो सके खाद्यान्नों को उनके प्राकृतिक रूप में ही ग्रहण किया जाए। इसके लिए उन्हें पानी में भिगोकर नरम बना लेने से काम चल जाता है।
अंकुरित अन्न-धान्यों को पूर्ण आहार के रूप में लेने पर प्रायः आशंका किसी के मन में उठ सकती है कि कच्चा अन्न सभी के लिए उपयुक्त नहीं पड़ता। उसे खाने पर पेट खराब हो सकता है, पाचन क्रिया गड़बड़ा सकती है और फिर वह स्वादिष्ट भी तो नहीं होता। वैज्ञानिकों ने इस संदर्भ में गहन खोज कर पाया कि जब अंकुरित गेहूँ, चना एवं सेम के बीजों के सेवन से विभिन्न प्रकार के उदर विकार दूर हो सकते हैं, तो कोई कारण नहीं कि जिसका पाचनतंत्र सबल एवं स्वस्थ है, उन्हें यह लाभकारी सिद्ध न हों। उनका कहना है कि अंकुरित हो जाने के पश्चात बीजों के रेशे, छिलके तथा तंतु हमारी आँतों का परिशोधन करते हैं सरल घटकों में टूट जाने के कारण उन्हें आत्मसात् करने में पाचन अंगों को भी कम शक्ति खर्च करनी पड़ती है। चूँकि इन बीजों को देर तक चबाना पड़ता है। अतः पेट में पहुँचने से पूर्व मुँह में लार के साथ मिले हुए रसायनों के कारण उनका अधिकांश भाग वहीं पच जाता है। आँतों में पहुँचने पर उनका पाचन- परिवर्तन जल्दी होता है, जिससे रक्त-निर्माण की प्रक्रिया में तीव्रता आती है। जीवंत आहार की थोडी-सी मात्रा से ही पेट भर जाता है। तले-भूने एवं पके हुए निष्क्रिय भोजन अधिक मात्रा में खाते रहने के कारण आए दिन दवा भक्षण की आवश्यकता पड़ती है, उससे भी छुटकारा मिल जाता है।
अंकुरित पदार्थों का सेवन आर्थिक दृष्टि से बहुत सस्ता पड़ता है। कम लागत में ही एक व्यक्ति का दिन भर का आहार जुट जाता है। आहारविशेषज्ञों ने दस व्यक्तियों के लिए संतुलित अंकुरित अन्नों की एक आहार तालिका प्रस्तुत की है। उसके अनुसार गेहूँ 200 ग्राम, चना, मूँग, ज्वार, बाजरा एवं मूँगफली में से प्रत्येक 100-100 ग्राम की मात्रा में लेकर सबको सम्मिलित रूप से साफ पानी में 12 घंटे तक भिगोकर रखने के उपरांत 12 घंटे तक किसी मोटे कपड़े में लपेटकर रख देना चाहिए | अधिक जीवंत बनाने के लिए इसे किसी खिड़की के पास लटकाकर रखा जा सकता है, जहाँ से हल्की धूप और रोशनी आ रही हो। कपड़ा सूखने न पाए, इसका सदा ध्यान रखना पड़ता हैं। 36 घंटे में बढ़िया अंकुर निकल आते हैं। ऋतु-प्रभाव के कारण बीजों के अंकुरण होने में कम-ज्यादा समय लग सकता है। सोयाबीन के दाने अवश्य देर से उगते हैं । अतः अलग से अंकुरित करना ही अच्छा रहता है। इसे मूँगफली के विकल्प के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है ।
अंकुरित अन्नों को स्वादिष्ट एवं रूचिकर भी बनाया जा सकता है। प्लेटों में निकालकर उसमें टमाटर, मूली, गाजर, खीरा, ककड़ी, धनिया, अदरक, पुदीना आदि को बारीक काटकर मिलाया जा सकता है। स्वाद के लिए भुना हुआ जीरा एवं हल्का नमक आवश्यकतानुसार ऊपर से छिड़क देने पर जायकेदार बन जाता है। मीठा एवं स्वादिष्ट बनाने के लिए गुड़, पिंड खजूर, नारियल, नीबू, अंगूर, इलायची आदि डाल देने पर पुष्टिकारक व्यंजन तैयार हो जाता है।
भारतीय पोषणविदों ने अंकुरित अन्नों की पोषण क्षमता पर गंभीरतापूर्वक अनुसंधान किया और पाया कि इस तरह का खाद्यान्न पौष्टिकता की दृष्टि से मनुष्य के लिए सर्वोत्तम आहार है। प्रयोग – परीक्षणों द्वारा पाया गया कि अनाज एवं दालों को अंकुरित करने पर उनमें सन्निहित प्राकृतिक शक्तियां सक्रिय हो उठती हैं और उनकी पोषण – क्षमता में अभिवृद्धि करती हैं। उनसे प्रस्फुटित नई कोपलें अतिरिक्त विटामिन एवं खनिज तत्त्वों से भर जाती हैं। इससे विटामिन ‘सी’ दस गुना तथा थायमिन, रिबोफ्लेविन और निकोटिनिक एसिड दोगुना हो जाता है। अंकुरण से दालों में कुछ हानिकारक तत्त्वों का विघटन हो जाता है और साथ ही लौहतत्त्व अपने रासायनिक यौगिकों से अलग होकर अधिक मात्रा में शरीर को मिलने लगता है। इतना ही नहीं अंकुरण से बीजों में भी भारी परिवर्तन होता है। इस अवस्था में दालों की ऊपरी परत फट जाती है और काफी नरम पड़ती है, जिससे कम समय में ही वे आसानी से खाने योग्य बन जाती हैं। कार्बोहाइड्रेट एवं प्रोटीन से संबंधित कोशिकाओं के विघटित हो जाने से उन्हें पचाने में आंतों को विशेष सुविधा रहती है। मेथी एवं सोयाबीन जैसे बीजों को अंकुरित कर लेने पर उनकी गुणात्मकता तो बढ़ती ही है, साथ में उनका तीखापन या कसैलापन भी कम हो जाता है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि ज्वार, बाजरा, गेहूं जैसे अन्न तथा चना, मटर, मूंग जैसी दालों एवं मेथी, तिल, मूंगफली आदि तिलहनों को अंकुरित अवस्था में ग्रहण करने पर पौष्टिक मान बढ़े होने के कारण सामान्य आहार की तुलना में ये अधिक लाभदायक सिद्ध होते हैं। शिशु आहार के रूप में अंकुरित मडुआ को बहुत उपयोगी पाया गया है। इसी तरह सेम एवं ब्रसेल जैसी सब्जियों के अंकुरित दानों में कैल्शियम, फास्फोरस, आयरन तथा विटामिन ‘ए’ प्रचुर परिणाम में मिलने के कारण उनकी उपयोगिता अब आहार-चिकित्सा में महत्त्वपूर्ण बन गई है। इंसुलिन जैसे रसायन इन बीजों के अंकुरों में अपनी प्राकृतिक अवस्था में पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं । फलतः डायबिटीज के रोगियों के उपचार में औषध का काम भी इनसे लिया जा रहा है। अंकुरों को पीसकर उनका रस निकाल लेने और प्रतिदिन पर्याप्त मात्रा में पीने से संतोषजनक परिणाम निकलता है। इस तरह अंकुरित आहार स्वास्थ्य एवं अभिवर्धन के साथ-साथ शक्ति तथा ओजस् तेजस् की वृद्धि का अतिरिक्त लाभ प्रस्तुत करता है।
डॉ. अंजू ममतानी
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