Avascular necrosis

अस्थि एक प्रकार का जीवित ऊतक (Living Tissue) है। यदि उसे रक्तापूर्ति होना बंद हो जाए तो उसे मृत समझा जाता है। यदि इस बाधित रक्तापूर्ति को रोका नहीं गया, तब हड्डियां घिसने लगती हैं। जब वे खत्म होने की कगार पर पहुंच जाती हैं, तो उसे एवैस्कुलर नेक्रोसिस कहते हैं। हड्डी घिसने या जोड़ों के अलग होने के कारण उस हिस्से में रक्त आपूर्ति बाधित हो जाती है। यह किसी को भी हो सकती है, लेकिन 30 से 60 वर्ष की आयु वर्ग के लोगों को यह अपनी गिरफ्त में ज्यादा लेती है। प्रतिवर्ष एवैस्कुलर नेक्रोसिस के देश में 1 लाख मरीज बढ़ जाते हैं। 20,000 नए मामले तो मुंबई में ही हर साल मिलते हैं। स्वस्थ व्यक्ति में एवीएन (AVN) की संभावना कम होती है लेकिन हाल ही में कोविड में दी गई स्टेरॉइड और अन्य दवाइयों के दुष्परिणाम स्वरूप AVN के रुग्ण मिल रहे हैं l

एवैस्कुलर नेक्रोसिस (Avascular Necrosis /AVN) हड्डियों का एक ऐसा विकार है, जिसमें बोन टिश्यू यानी हड्डियों के ऊतक मरने लगते हैं। इस तरह की स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब इन ऊतकों तक पर्याप्त मात्रा में रक्त नहीं पहुंच पाता। इसे ऑस्टियोनेक्रोसिस (Osteonecrosis). एसेप्टिक नेक्रोसिस (Aseptic Necrosis), इरचेमिक बोन नेक्रोसिस (Ischaemic Bone Necrosis) भी कहा जाता है।

कारण :- अधिकांश रुग्णों में इसका कारण आघात (Injury) या हीन स्वास्थ्य है। इसके 2 प्रकार होते हैं-

1. आघातजन्य (Traumatic) – जोड़ में किसी भी तरह की चोट या परेशानी जैसे जोड़ों के खुल जाने की वजह से उसके नजदीक की रक्तनलिकाएं क्षतिग्रस्त हो सकती हैं। जंघा की अस्थि (Thigh bone) के फ्रैक्चर या डिस्लोकेशन में हड्डी को रक्तापूर्ति नहीं होती, जिससे एवीएन की संभावना रहती है। हिप ज्वाइंट (Hip Joint) के हड्डी सरकना (Dislocation) में एवीएन (AVN) होने की 20% संभावना रहती है ।

2. आघातविहीन (Non-Traumatic) कई बार रक्त – नलिकाओं में फैट्स का जमाव हो जाता है, जिससे वे संकरी हो जाती हैं। इससे हड्डियों तक रक्त नहीं पहुंच पाने से उन्हें पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता है।

֍ दीर्घकाल तक कार्टीकोस्टेरॉइड का प्रयोग- लंबे समय से स्टेराइड का प्रयोग (Orally या Intrarenous) करने पर 35% रुग्णों को इसकी (Non Traumatic AVN) होने की संभावना रहती है।
֍ शराब आदि मादक पदार्थों का अधिक सेवन करने से रक्तवाहिनियों में फैटी वस्तु अधिक हो जाती है, जिससे हड्डी को रक्तापूर्ति नहीं होती ।
֍ खून का जमना (Blood Clots), सूजन व रक्तवाहिनी में आघात के कारण भी अस्थियों को रक्तापूर्ति बराबर नहीं होती ।
֍ गॉचर रोग (Gaucher’s Disease) चयापचय का वह रोग – है, जिसमें अंगों (Organs) में चर्बी (Fatty Substance) जमा होती है।
֍ सिकलसेल रोग ।
֍ पैन्क्रियाज की सूजन (Pancreatitis) ।
֍ डायबिटीज़ | हाई ब्लड प्रेशर । HIV संक्रमण । ऑटोइम्युन रोग ।
֍ रेडिएशन थेरेपी या किमोथेरेपी
֍ सिस्टेमिक ल्युपस एरिथ्रोमेटोसस (SLE)
֍ हायपरलिपिडेमिया, ֍ हायपरयूरेमिया, ֍ गाउट
֍ रिनल ट्रान्सप्लान्ट

इन सबके अलावा कुछ ऐसे अनजाने कारण भी होते हैं, जिनकी वजह से यह बीमारी लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लेती है।

लक्षण :- कई लोगों में शुरुआती दौर में इस बीमारी के कोई भी लक्षण दिखाई नहीं देते हैं। जब स्थिति बहुत ज्यादा खराब हो जाती है, तब वजन उठाने पर जोड़ों में दर्द होने लगता है और अंततः स्थिति इतनी ज्यादा बिगड़ जाती है कि लेटे रहने पर भी जोड़ों में दर्द होता रहता है। यह मुख्यतः हिप ज्वाइंट (Hip Joint) में होता है। इस बीमारी में मध्यम दर्जे का या बहुत तेज दर्द होता है और यह धीरे-धीरे बढ़ता जाता है। कूल्हे (Hip Joint) का एवैस्कुलर नेक्रोसिस होने पर पेडू जांघ और नितंब में दर्द होता है। कमर पर दबाव पड़ने से असहनीय वेदना होती है। यह वेदना जंघा भाग तक होती है। व्याधि के बढ़ने पर हिप जॉइन्ट कठोर (कड़क) हो जाता है। उसके कारण लड़खड़ाकर चलना, नींद में भी लगातार पीड़ा होना, पीड़ा के कारण नींद न आना, पैरों मे चींटी चलने जैसी वेदना, बिच्छू के दंश जैसी वेदना होना आदि लक्षण दृष्टिगत होते हैं। दर्द के कारण रोगी कमर या. पैर की हलचल करने में असमर्थ होता है। इस प्रकार रुग्ण वेदना के कारण असहाय महसूस करता है। कूल्हे के अलावा इस बीमारी से कंधे (Shoulders), घुटने (Knees), हाथ (Humerus) पैर (Ankles) और जबड़ा (Jaw) के भी प्रभावित होने का खतरा बना रहता है। इसमें एक से अधिक अस्थियां भी एवीएन से विकारग्रस्त हो सकती हैं। जांच (Investigation) जोड़ों की जांच करने के बाद डॉक्टर इमेजिंग टेस्ट का परामर्श देते हैं। इस टेस्ट में जोड़ों का एक्स-रे, एमआरआई व सीटी स्कैन और बोन स्कैनिंग की जाती है। हालांकि शुरुआती दौर में एक्स-रे रिपोर्ट सामान्य ही आती है। एमआरआई और सीटी स्कैन हड्डियों की विस्तृत इमेज सामने रखते हैं, जिससे डॉक्टर को इसमें होने वाले प्रारंभिक बदलाव का पता चल पाता है

उपचार :- AVN के उपचार का लक्ष्य निम्न प्रकार से होता है।
֍ रोगग्रस्त अस्थि का कार्य ठीक करना।
֍ अस्थिक्षय की गति को रोकना ।
֍ दर्द कम करना ।
इसका उपचार निम्नलिखित पहलुओं पर निर्भर करता है-
֍ रोगी की उम्र ।
֍ रोग की स्थिति ।
֍ अस्थिक्षति का स्थान व कितना भाग क्षतिग्रस्त हुआ है।
֍ कारणानुसार
यदि एवीएन का कारण रक्त का थक्का (Blood Clot) है, तो उसे घुलाने की औषधि दी जाती है। यदि रक्तवाहिनियों की सूजन कारण है, तो शोथ निवारक औषधि दी जाती है

आधुनिक उपचार
एवैस्कुलर नेक्रोसिस के शुरुआती दौर में इसके लक्षणों को समाप्त करने के लिए दवाइयां और थेरेपी का सहारा लिया जाता है। इसके तहत मरीज को दर्द कम करने, रक्तनलिका के अवरोध को दूर करने की दवाइयां दी जाती हैं। मरीज की क्षतिग्रस्त हड्डियों पर पड़ने वाले भार व दबाव को कम करने की कोशिश की जाती है। इस बीमारी के बहुत ज्यादा गंभीर होने पर सर्जरी करते हैं, जिसके निम्न प्रकार हैं –

बोन ग्राफ्ट्स (Bone Grafts) – हड्डियों के क्षतिग्रस्त भाग की जगह मरीज के शरीर की कोई स्वस्थ हड्डी लेकर लगाई जाती है।

ऑस्टिओटामी (Osteotomy) – इस तकनीक में अस्थि को काटकर, उसका अलाइनमेंट परिवर्तित कर अस्थि या संधिगत दबाव कम किया जाता है।

टोटल ज्वाइन्ट रिप्लेसमेंट (Total Joint Replacement) – इसमें विकृत संधि को निकालकर सिन्थेटिक संधि लगाते हैं। इसके दुष्प्रभाव भी हैं जैसे ठीक होने में समय लगता है व संधि का जीवनकाल कम (Life Short) हो जाता है। यह वृद्धावस्था में अच्छा उपचार है, पर युवावस्था में यह उपचार करने का परामर्श डॉक्टर नहीं देते।

कोर डिकम्प्रेशन (Core Decompression) – इस तकनीक में अस्थि के अंदर का भाग निकालकर अस्थिगत दबाव कम किया जाता है और नवीन रक्तवाहिनियां बनने दी जाती हैं।

वैस्कुलराइज्ड बोन ग्राफ्ट (Vascularized Bone Graft) – इस तकनीक में रोगी के स्वस्थ ऊतक का प्रयोग कर विकृत हिप ज्वाइन्ट को पुनर्निर्मित किया जाता है। इसमें हिप ज्वाइन्ट के जिस भाग में रक्त प्रवाह कम है, वह निकालकर वहां उत्तम रक्तवाहिनियों से युक्त अस्थि को लगाया जाता है जैसे पैरों में होने वाली फिबूला (Fibula) अस्थि से स्वस्थ ऊतक निकाला जाता है।

साध्यासाध्यता (Prognosis)
एवीएन के कारण उत्पन्न अस्थि विकृति इस बात पर निर्भर करती है कि अस्थि का कौनसा व कितना भाग प्रभावित हुआ है तथा अस्थि स्वयं का पुनर्निर्माण कितनी तेजी से करती है। अस्थि में आघात होने पर पुनर्निर्माण का कार्य वैसे ही प्रारंभ हो जाता है, जैसे सामान्य अस्थि वृद्धि होती है। सामान्यतः अस्थि लगातार टूटती है व पुननिर्मित होती है। पुरानी अस्थि का पुनः अवशोषण होकर नई हड्डी बनती है। इस प्रक्रिया से अस्थि का ढांचा मजबूत बनता है और मिनरल्स का संतुलन बना रहता है एवीएन के केसेस में अस्थि के ठीक होने की प्रक्रिया (Healing Process) अप्रभावी होती है और अस्थि के टिशूज शरीर के रिपेअर होने की अपेक्षा तीव्र गति से टूटते जाते हैं। यदि इसका उपचार नहीं किया तो अस्थि टूटकर (Collapse) संधियां भी टूटती हैं व रोगी को अधिक वेदना महसूस होती है। इसी से संधिवात भी होता है।

आयुर्वेदिक उपचार
आधुनिक चिकित्साशास्त्र में इस व्याधि के लिए प्रभावी उपचार उपलब्ध नहीं है। इसमें केवल दर्दनिवारक औषधियां देते हैं व संधिगत कठोरता दूर करने के लिए व्यायाम बताया जाता है। अंत में जाइन्ट रिप्लेसमेंट ही एकमात्र उपाय बचता है। आयुर्वेद की दृष्टि से अस्थि धातु के लिए प्रभावी औषधियां है, जो कि उसका पोषण कर उसे स्वस्थ रखती हैं, जैसे प्रवाल भस्म, कुक्कुटाण्ड त्वक भस्म, गोदंती भस्म, शौक्तिक भस्म, यशद भस्म आदि। साथ ही इसमें रक्तप्रवाह बढ़ाने के लिए स्वर्णमाक्षिक, मधुमालिनी वसंत, पुनर्नवा मण्डूर इत्यादि रक्तप्रवाहक औषधियों के अच्छे परिणाम मिलते हैं। इसके अलावा लाक्षादि गुग्गुल, आभा गुग्गुल, केशोर गुग्गुल, पुष्पधन्वारस, गुडूची, आंवला, नागरमोथा, बला, विदारीकंद, अश्वगंधा, शतावरी, गोक्षुर, अजा (बकरी) दुग्ध, शुद्ध शिलाजीत, जीवत्यादि घृत का प्रयोग चिकित्सक के परामर्शानुसार कर सकते हैं। आयुर्वेद उपचार पद्धति से इसमें अधिकाधिक लाभ होने की संभावना होती है।

पंचकर्म
पंचकर्म के अंतर्गत प्रभावित संधि में स्थानिक बस्ति के उत्तम परिणाम मिलते है परंतु यह चिकित्सा दीर्घकाल तक लेनी पड़ती है। इससे विकृत संधि की कठोरता दूर होती है। और संधियों की हलचल व्यवस्थित होती है। पंचतिक्तक्षीर बस्ति के भी अच्छे परिणाम मिलते हैं। उसमें प्रयुक्त तिक्त रस के कारण रक्तदुष्टि ठीक होती है। शास्त्रों में वात के रोगी में निम्न प्रकार की बस्ति देने का विधान है।
कर्मबस्ति (30) :- अनुवासन (18) + निरूह (12 दिन)
अनुवासन बस्ति (18) :- तैल – दशमूल तैल / सहचर तैल, मात्रा :- 100ML
निरूह बस्ति (12 दिन) :- काढा :- दशमूल क्वाथ (600ML) + मज्जा काढ़ा (150ML) तेल / घृत (160ML). मात्रा :- 960ML (मज्जा काढ़ा बनाने के लिए अजा (बकरी) के गुल्फअस्थि को पानी में मिलाकर काढ़ा बनाया जाता है।)
पंचकर्म के बाद रसायन चिकित्सा करनी चाहिए।
योगासन में पश्चिमोतानासन व उत्कटासन के भी उत्तम परिणाम मिलते है। अतः आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति अपनाने से ज्वाइंट रिप्लेसमेंट की संभावना कम हो जाती है । व्याधि के प्रारंभ में ही यदि आयुर्वेदिक उपचार लिया जाए. तो शीघ्र ठीक होने की संभावना रहती है।

डॉ. जी.एम. ममतानी
एम.डी. (आयुर्वेद पंचकर्म विशेषज्ञ)

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