महिलाओं की शारीरिक संरचना अत्यंत कोमल होती है। एक ओर उन्हें पुरुषों की अपेक्षा अधिक श्रम करना पड़ता है, वहीं घर-बार की जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए वे स्वयं के स्वास्थ्य की ओर समुचित ध्यान नहीें दे पातीं। परिणामस्वरुप अनायास ही उन्हें कई रोग घेर लेते हैं। व्यस्त दिनचर्या के कारण प्रायः महिलाएं प्रारंभ में इन समस्याओं को नजरअंदाज करती हैं। इससे रोग विकसित होता चला जाता है और कालांतर में जटिल होकर भारी भारी परेशानियों का सबब बनता है। दूसरी ओर जिन महिलाओं को घर में अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता अथवा जो आलस्यवश इससे बचती रहती हैं। उन्हें भी विभिन्न शरीरगत विकार सहज ही अपना शिकार बना लेते हैं। दोनों स्थितियों का दुष्परिणाम महिलाओं के सौंदर्य पर भी स्वाभाविेक रुप से पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक है कि खुद को सदैव संतुलित मात्रा में कार्यरत रखा जाए। साथ ही पारिवारिक दायित्व निभाते हुए भी महिलाएं अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहें।
महिलाओं को यूं तो अनेक शारीरिक समस्याओं से जूझना पड़ता है। किंतु उनमें बहुधा पाए जाने वाले रोगों एवं उनके उपचार का विवेचन यहां किया जा रहा है। इन प्रमुख विकारों की जानकारी होना हर महिला के लिए आवश्यक है।
एनिमिया
रक्त ही शरीर का आधारस्तंभ है। अतःमानव शरीर में इसकी कमी होने पर अनेक लक्षण पाए जाते है। जैसे-कमजोरी, सांस फूलना, चढाई चढ़ने या परिश्रम करने से सांस लेने में तकलीफ, संपूर्ण शरीर में शिथिलता आलस्य, कार्य के प्रति अनुत्साह, त्वचा का वर्ण सफेद होना, आंखों के नीचे कालापन, नाखूनों में श्वेतता, कभी-कभी आंखों के नीचे व चेहरे पर सूजन, शरीर की बल हानि, आंखों के सामने अंधेरा आना चक्कर, सिरदर्द, अनिद्रा, रुग्ण को दिल की धड़कन अधिक प्रतीत होना, भोजन के प्रति अरुचि सारे शरीर में दर्द, चेहरा निस्तेज हो जाना, बुखार, त्वचा में रुखापन,त्वचा का फटना, छाती में दर्द, बालों का झड़ना, मुंह में छाले इत्यादि। इनमें से कम-ज्यादा लक्षण सभी रोगियों में पाए जाते है।
भोजन में रक्तवर्धक आहार का प्रचुर मात्रा में सेवन करें। जैसे-हरी सब्जियां, गाजर, चुकंदर, सेब, अंगूर, दूध, खजूर, गुड़, मधु, मुनक्का, खारिक , अंकुरित धान्य इत्यादि। अधिक तकलीफ होने पर चिकित्सक के मार्गदर्शन में औषधोपचार करना चाहिए अन्यथा अनेक उपद्रवों का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि रक्त को जीवन कहा गया है।
रक्तप्रदर
रक्तप्रदर को आयुर्वेद में अत्यार्तव आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में मेनोरजिया । (Menorrhagia) कहते है। इसका समय पर इलाज न कराना कठिनाईयुक्त होता है। रक्तप्रदर अर्थात मासिक स्राव की मात्रा में अति वृद्धि। रजोनिवृत्ति काल (मेनोपाज पीरियड) में यह तकलीफ अधिकांश महिलाओं को हार्मोन असंतुलन की वजह से होती है। रक्तप्रदर के कारण निम्नलिखित है-
फाइब्राइड (Fibroid), गर्भाशय की अंतःकला में सूजन, एन्डोमिट्रिओसिस, अंतःकला का कैंसर, ओवरियन टयुमर,कॉपर टी, लुप इत्यादि का प्रयोग, हाइपोथाइराडिसम, हाइपरथाइराडिसम्, उच्चरक्तदाब की पुरानी रुग्णा, जीर्ण वृक्कशोथ, अपोषण , यकृत का ठीक से कार्य न करना रक्ताल्पता, लंबे समय तक साइकोट्रापिक औषधि इत्यादि सभी कारण रक्तप्रदर को निर्मित करने में कारणीभूत है।
रक्तप्रदर का मुख्य लक्षण मासिक स्राव का अति मात्रा में स्रवण है। साधारणतः मासिक स्राव 3-4 दिन रहता है परंतु इस स्थिति में मात्रा बढ़ जाती है। कभी-कभी 10-15 दिन तक भी मासिक स्राव होता है। इसके अलावा मासिक के समय पेडू में दर्द, कमर दर्द, अत्यंत कमजोरी ,आंखों के सामने अंधेरा आना, रक्ताल्पता, थकावट, चेहरा निस्तेज हो जाना, चक्कर आना, भोजन के प्रति अरुचि इत्यादि लक्षण होते हैं। इसमें आयुर्वेदिक औषधि लाभदायक पायी गयी है।
मासिक धर्म की पूर्वावस्था
यह समस्या हर माह में अधिकांश स्त्रियों के साथ होती है। सब कुछ व्यवस्थित चलता रहता हैं, पर अचानक ही मासिक धर्म के 1 या 2 सप्ताह पूर्व कोई-कोई स्त्री बेवजह ही तनावग्रस्त रहती है। अचानक चिड़चिड़ापन, निराशा, बुखार , सिरदर्द, पेट फूलना, थकान, किसी भी कार्य में मन न लगना, ज्यादा गुस्सा या रोने की इच्छा होना जैसे अनेक लक्षण मासिक धर्म के पूर्व स्त्रियों में पाए जाते हैं। मासिक धके एक दिन पूर्व इन लक्षणो में बढा़ेतरी होती है। सिरदर्द व तनाव तो सामान्यतः होने वाले लक्षण हैं। किसी-किसी को उल्टी तथा छाती में दर्द भी होता है। कभी-कभी यह स्थिति असहनीय हो जाती है। जिन महिलाओं को संधिगत वेदना की बीमारी होती है। उन्हें मासिक धर्म के पूर्व या उन दिनों संधियों में दर्द बढ़ जाता है। दरअसल यह मासिक धर्म के पूर्व होने वाली स्त्री की सामान्य अवस्था है। अधिकांश को इस वेदना से हर माह गुजरना पड़ता है पर कुछ महिलाओं को तकलीफ इतनी होती हैं कि इसका प्रभाव उनके दैनंदिन के कार्य व सामाजिक जीवन पर पड़ता है। उम्र बढ़ने के साथ व गर्भधारण के पश्चात इसमें कमी पाई जाती है। इसे मासिक धर्म की पूर्वावस्था (Pre Menstrual Syndrome) कहते है ।
कष्टार्तव
अधिकांश स्त्रियों को मासिक धर्म के समय पेडू में हल्का दर्द होता है। यह प्राकृतिक स्थिति है क्योंकि रजःकाल के समय गर्भाशय का आकुंचन होता है, जिससे स्त्री को पेडू में हल्का दर्द होता है। आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में इसे डिसमेनोरिया (Dysmenorrhoea )कहते हैं। भोजन में कार्बोहाइड्रेट का अभाव, हार्मोस का असंतुलन, पी.आई.डी (श्रोणिगत विकार), एंडोमेट्रिओसिस, ओवेरियन सिस्ट, गर्भाशय का पश्चिमतः मुड़ना, गर्भाशय ग्रीवा का मुख संकुचित होना, गर्भाशय का आगे की ओर अति झुकाव, प्रोजेस्ट्रान की गोली का ज्यादा सेवन, मानसिक भाव इत्यादि इस रोग के उद्भव के कारण बताए गए हैं।कष्टार्तव की रुग्णा में पेडूगत असहनीय वेदना, उल्टी,पैरों में दर्द, थकान, चक्कर, कभी बुखार, कभी-कभी अतिसार, संपूर्ण शरीरगत पीड़ा इत्यादि लक्षण पाए जाते हैं। किसी-किसी अविवाहित रुग्णा में विवाह के पश्चात व 1 प्रसूति के बाद कष्टार्तव के लक्षण स्वतःही समाप्त हो जाते है।
श्वेतप्रदर (Leucorrhoea)
महिलाओं की आम समस्याओं में से एक है-श्वेतप्रदर। यूं तो प्रत्येक स्त्री में सामान्यतः योनिगत स्राव गंधरहित व अल्प मात्रा में सदैव रहता ही है पर इसकी अति मात्रा व दुर्गधयुक्त होना ही रोग का रुप धारण करता है। योनिद्वार से दुर्गंधयुक्त, मलिन, चिपचिपा, गाढा, मवाद-भरा स्राव अनियमित रुप से आना व उसका प्रभाव स्त्री के स्वास्थ्य व सौंदर्य पर पड़ना ही श्वेतप्रदर कहलाता है। लज्जावश कई महिलाएं यह समस्या कह नहीं पातीं, जिसके भयंकर दुष्परिणाम होते है। प्रचलित भाषा में इसे सफेद पानी या ल्युकोरिया कहते हैं।
श्वेतप्रदर से ग्रस्त महिलाएं सदैव कमर दर्द की पीड़ा से परेशान रहती हैैं। इसके अलावा जांघें में अकड़न, उदरशूल, सिरदर्द, कब्ज, थकावट, शरीर के प्र्रत्येक अंग में पीड़ा, चेहरा निस्तेज व झुर्रियां होना, चक्कर, आंखों के सामने अंधकार, भोजन के प्रति अरुचि, दुर्बलता, बार-बार मूत्र-विसर्जन की इच्छा, किसी कार्य में मन नहीं लगना, योनिद्वार से चावल के मांड जैसा सफेद, कुछ गाढ़ा दुर्गंधित स्राव होना, बाल झड़ना, चिड़चिड़ापन, आंखों के चारों ओर काले घेरे होना, थोड़ा-सा श्रम करने पर श्वास फूलना आदि लक्षण दिखते है।
किसी-किसी महिला को मासिक धर्म से पहले व पश्चात तकलीफ होती है। रुग्णा का शरीर इतना कमजोर हो जाता है कि अन्य रोग भी उसे घेर लेते हैं।
रजोनिवृत्ति
स्त्री की प्रौढ़ावस्था मेें एक आवश्यक बदलाव आता है। 40 व 45 वर्षाें के उम्र में रजः स्राव धीरे-धीरे बंद होकर पूर्णतःसमाप्त हो जाता है। इसे ही रजोनिववृत्ति काल कहतेे है। जिस प्रकार रजोदर्शन काल का महत्व है। उसी प्रकार स्त्री जीवन के इस महत्वपूर्ण समय को भी नकारा नहीं जा सकता। इसके 1-2 वर्ष से ही हार्मोन असंतुलन से कुछ समस्याएं उत्पन्न होती हैं। जिसे रजोनिवृत्ति काल (मेनोपॉजल सिन्ड्रोम) कहते हैं। कुछ स्त्रियों को इस काल में अनेक उपद्रवों का सामना करना पड़ता है
रजोनिवृत्ति काल का महत्वपूर्ण लक्षण है-कभी उष्णता का अनुभव तो कभी शीतलता महसूस होना। इसका कारण इस्ट्रोजन हार्मोन का असंतुलन है। इससे कई महिलाओं में यौनाचरण में कमी आती है। इसके अलावा हाथ-पैर के तलवों में जलन होना, कमर दर्द, अनिद्रा, स्तनोें में दर्द होना, मासिक धर्म का अनियमित होना, बार-बार मूत्र-प्रवृत्ति, खांसी व खांसने से या बहुत जोर से हसंने से मूत्र-प्रवृत्ति होना जैसे लक्षण दिखाई देते हैं। किसी महिला को गर्भाशय भ्रंश (गर्भाशय स्वयं के स्थान से बाहर आना) होता है। सारे शरीर की त्वचा शिथिल हो जाती है, विशेषतः चेहरे की। ये सभी समस्याएं किसी के जीवन में शीघ्र ही दृष्टिगोचर होती हैं, तो कोई महिला इन तकलीफों से धीरे-धीरे परेशान होती है। रजोनिवृत्ति स्वाभाविकतया आने वाला समय है, अतः स्त्री को चाहिये कि इसे सहज ढंग से ले। इसे रोग न समझकर स्त्री जीवन की परिपूर्णावस्था समझे ।
पॉलिसिस्टिक ओवेरियन सिन्ड्रोम (P.C.O.S)
यह महिलाओं में होने वाली ऐसी व्याधि है। जिसका प्रभाव उनके मासिक धर्म, हार्मोन्स, हृदय तथा रक्तवाहिनियों पर पड़ता है। PCOS से ग्रस्त महिलाओं में एंड्रोजन (पुरुष हार्मोन्स) की मात्रा अधिक होती है। इसके अतिरिक्त अनियमित मासिक चक्र रहता है। संतान उत्पन्न करने की आयु (Child Bearing Age) वाली स्त्रियों में 10 में से 1 को PCOS होता है। यह रोग 11 वर्ष की बालिका को भी हो सकता है।
लक्षण
1) अनियमित मासिक स्राव या मासिक स्राव बंद हो जाना। किसी को 5-6 महीने में मासिक स्राव होते पाया गया है। हार्मोन चिकित्सा लेने पर ही मासिक धर्म होता है।
2) बांझपन (ओव्युलेशन न होने के कारण )
3) चेहरे, छाती, पेट, पीठ, उंगलियों व अंगूठों परअनचाहे बालों की वृद्धि। इस लक्षण को हिरसूटिजम (Hirsutism) कहते हैं
4) ओवैरियन सिस्ट-स्त्री बीजकोष में गांठे होना
5) तैलीय त्वचा के कारण रुसी व कील-मुंहासे होना
6) स्थूलता कमर के आसपास मेद( चर्बी) का होना
7) डायबिटीज (Type-II)-जिन स्त्रियों का वजन प्रमाण से अधिक है,उनमें इंसुलिन रेसिस्टेंस अधिक मिलता है। अतः PCOS की रुग्णाओं में वजन कम होने पर इन्सुलिन रेजिस्टेंस भी कम होता है व इस रोग के सभी लक्षणों की तीव्रता कम होती जाती है
8) कोलेस्ट्रोल का बढ़ना, हाई ब्लड प्रेशर
9) बालों का पतला होना या गंजापन
10) गर्दन, बाहों, छाती व जांघ की त्वचा मोटी व काली होना, नाभि के निचले प्रदेश में दर्द होना
11) उपरोक्त लक्षणों से युवतियों का आत्मविश्वास डगमगा जाता है तथा वे मासिक अवसाद से ग्रस्त रहती हैं।
गर्भवती महिला को PCOS से गर्भस्राव (Abortion)गर्भावस्थाजन्य मधुमेह व हाई ब्लडप्रेशर हो सकता है। कभी-कभी इससे समय से पहले प्रसूति (Premature Delivery)हो भी सकती है।
एड़ी का दर्द
महिलाओं में आमतौर पर पाई जाने वाली तकलीफ एड़ी का दर्द है। इसके कारणों में वातवर्धक आहार का अधिक सेवन, ठंडा मौसम, रात में जागना, पौष्टिक आहार का अभाव आदि का समावेश होता है। इसके अलावा ज्यादा देर तक नंगे पैर चलना, उबड़-खाबड़ या पथरीली जमीन पर बिना चप्पल के घूमना व पत्थर से एड़ी में चोट लगने से भी वातकंटक रोग होता है।
• एड़ी से संबंधित रोगों प्लांटर फेसिटिस (Plantar Fasciitis) व हील स्पर (Heel spur) के कारण एड़ी दर्द होता है। इन दोनों का आपस में घनिष्ठ संबंध है। प्लांटर फेसिटिस अर्थात् प्लांटर फेशिया ऊतक (Plantar Fascia Tissu) में होने वाली सूजन। हील स्पर अर्थात एड़ी में होनेवाले हड्डियों की अनावश्यक वृद्धि। प्लांटर फेशिया ऊतक पैरों को अर्धगोलाकार (Arch) बनाता है। हील स्पर एड़ी की हड्डी से जुड़ी एक हुक जैसी रचना है। यह प्लांटर फेशिया के कठोर हो जाने (Ossification) के कारण होता है।
• खड़े रहने की गलत आदत और मोटापे के कारण भी एड़ी पर भार पड़ने से दर्द हो सकता है।
• 30 वर्ष से अधिक आयु की महिलाओं में बहुधा एड़ी दर्द के लक्षण पाए जाते हैं।
• एड़ी में सूजन व दर्द साधारणतः खराब किस्म के व पुराने जूते पहनने से भी होता है। उंची एड़ी की सैंडिल, चप्पल व जूतों का प्रयोग करणा एड़ी पर सरासर अन्याय है। महिलाओं को हाई हील वाले सैंडिल पहनने से एड़़ी का दर्द इसलिए होता है क्योंकि उनकी संरचना पैरों की कुदरती बनावट के अनुरुप नहीं होती।
इसके अलावा पैरों में दर्द, सूजन गठान आदि की भी प्रमुख वजह यही होती है। कभी-कभी तो इसका असर कूल्हे, रीढ़ की हड्डियों से होता हुआ कंधे और मस्तिष्क तक भी पहुंच जाता है और यह पीड़ा असहनीय हो जाती है। ऊंचाई बड़ी दिखाने के लिए ऐसे जूते, चप्पल या सैंडिल पहनना उचित है, जो सभी तरफ से ऊंचे उठे हों। हाई हील न केवल पैरों के लिए परेशानी का कारण बनती है, अपितु कमर के निचले हिस्से में दर्द की समस्या भी पैदा करती है। शरीर का सारा वजन पैर के अगले हिस्से में(पंजे) पड़ता है। यदि हम लंबे समय तक हाई हील पहनते हैं तो शरीर के जोड़ों में भी तकलीफ होना शुरु हो जाती है।
कमर दर्द
महिलाओं में कमर दर्द आम समस्या हो गई है। करीब 90 प्रतिशत महिलाएं इससे ग्रस्त हैं। इसका प्रमुख कारण गलत ढंग की दिनचर्या है। इसके लिए मोटापा, मासिक की अनियमितता, मासिक प्रवृत्ति वेदनायुक्त होना, मासिक के पूर्व गर्भाशय में सूजन, गर्भाशय बाहर आना, गर्भावस्था, प्रसूतावस्था, सिजेरियन प्रसव के पश्चात अति आराम, अति श्रम, व्यायाम का अभाव, हील की सैंडल पहनना इत्यादि कारणीभूत घटक हैं। नरम बिस्तर पर सोना, रीढ़ की हड्डी में टी.बी. संक्रमण, रीढ़ की हड्डी का क्षरण, कब्ज इत्यादि कारण भी कमर की पीड़ा के लिए जिम्मेदार हैं। स्पांडिलाइटिस में मेरुदंड की हड्डियों में सूजन आने से कमर दर्द का लक्षण मिलता है। मूत्रवह संस्थान में पथरी या अन्य विकृति होने के कारण भी यह समस्या उपज सकती है।
मासिक धर्म के समय पेटदर्द के साथ कमर दर्द का भी इतिहास कई रुग्णों में मिलता हैं जिसे कष्टार्तव कहते हैं। इसके अलावा पेट में कोई विकारहोनें तथा अनेक मानसिक कारणों से भी इसके लक्षण मिलते है। डिप्रेशन के रुग्णों में अक्सर कमर दर्द की शिकायत मिलती है।
मोटापा
स्थूलता निरंतर चिंता उत्पन्न करने वाली शारीरिक स्थिति है। केवल इसलिए नहीं कि वह जीवन को कम करती है। वरन् इसलिए भी कि वह अन्य अनेक कठिनाइयां उत्पन्न करती है। स्थूलता, यंत्रवाद एंव भोगवाद का परिणाम है। जिसके अनेक नुकसान है। जैसे स्थूल व्यक्ति में आलस व सुस्ती रहती है। काम करने में अधिक शक्ति का खर्च करना पड़ता हैं। थोड़ा-सा काम करने पर वह हांफने लगता है आदि । मोटापे से ग्रस्त व्यक्ति के पैरों के पंजों में तीव्र पीड़ा होती है क्योंकि शरीर के अतिरिक्त भाग का दबाव उसके पैरों पर पड़ता है। इससे उनमें दर्द होता है। अतः घुटनों के दर्द में भी वजन कम करने की सलाह दी जाती है। अध्ययन में पाया गया है कि सामान्य वजन वालों की अपेक्षा मोटापे से ग्रस्त व्यक्ति में फ्रैक्चर व हाथ-पैर में चोट की संभावना अधिक रहती है।
स्थूल व्यक्ति के रक्त में कोलेस्ट्राल की मात्रा अधिक रहती है। कोलेस्ट्रोल धमनियों को संकरा कर, अवरोधजन्य हृदय रोग (Ischemic Heart Disease) उत्पन्न करता है। इसके अलावा हाई ब्लड-प्रशर व डायबिटीज़़ का भी मोटापे से सीधा संबंध है। ऐसे लोगों में श्वासोच्छवास की क्रिया उथली होती है। ठीक से श्वास नहीं ले पाने के कारण योग्य मात्रा में ऑक्सीजन का संचय व कार्बन डायऑक्साइड का पूर्णतःनिष्कासन नहीं हो पाता । यकृत पर भी स्थूलता का घातक प्रभाव होता है।शरीर में अतिरिक्त चर्बी बढ़ने का प्रमुख कारण रक्त मंव कोलेस्ट्रोल की मात्रा में वृद्धि हो जाना है। मोटापे के कारण हमें सामान्य कार्य करने में तो परेशानी होती है। कई बीमारियों की भी आशंका भी बनी रहती है। खान-पान में मनमानी और अनियमितता से भी शरीर स्थूल हो जाता है। इसलिए जरुरी हो जाता है कि हम स्वयं में संयमित आहार लेने की आदत डालें व नियमित व्यायाम करें। साथ ही पंचकर्म की लेखन बस्ति करवाकर इससे मुक्ति पाएं। आयुर्वेद में शरीर की अतिरिक्त चर्बी कम करने के लिए अनेक मेदोहर औषधियों का वर्णन हैं।
महिलाओं को होने वाले उपरोक्त सभी रोगों को जान लेने के बाद यह बात स्पष्ट हो जाती है कि शरीर में किसी भी प्रकार का प्रतिकूल लक्षण दिखने पर उसकी अनदेखी न करें प्राकृतिक परिवर्तनों को सहजता से लेकर संयमित दिनचर्या अपनाना भी आवश्यक है। अति श्रम एवं अति आलस्य से बचें। किसी भी रोग की संभावना प्रारंभिक अवस्था में ही विशेषज्ञ चिकित्सक का परामर्श लें। आयुर्वेद में महिलाओं के स्वास्थ्य एवं सौंदर्य संवर्धन के अद्भुत उपाय बताए गए हैं। आयुर्वेदिक पंचकर्म तो नारी-शरीर को समस्त विकारों से रहित बनाकर, उनकी सुंदरता में चार चांद लगा देता है। योग एवं प्राणायाम को अपनी जीवनचर्या का अभिन्न अंग बनाकर सुस्वास्थ्य प्राप्ति के साथ ही तेजस्वी व कांतिमय बनाया जा सकता है।
डॉ.अंजू ममतानी
जीकुमार आरोग्यधाम
आयुर्वेदिक पंचकर्म हॉस्पिटल अन्ड रिसर्च इन्स्टिट्यूट
238,नारा रोड, जरीपटका, नागपुर-14
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