Mental Diseases and Ayurveda

आयुर्वेद में आचार्यों ने स्वस्थ व्यक्ति की परिभाषा सुंदर व सटीक रूप से की है-

समदोषः समाग्निश्च समधातु मल क्रियः प्रसन्नात्मेंद्रिय मनः स्वस्थ इत्यभिधीयते

अर्थात जिसके दोष, धातु व मलक्रिया सम होने के साथ-साथ आत्मा, इन्द्रिय व मन प्रसन्न है वही स्वस्थ व्यक्ति के अंतर्गत आता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी देर से ही सही इस तथ्य को स्वीकार कर अब स्वास्थ्य की परिभाषा इस तरह की है-

Health is the physical, Mental, Social and Spiritual well being and not merely the adsence of disease or infirmity

अतः आयुर्वेद में मन को अत्यंत महत्व दिया गया है। स्वास्थ्य और विकार दोनों ही अवस्थाओं में मन का समान रूप से महत्व है। जब तक मन प्रसन्न न हो, व्यक्ति को स्वस्थ नहीं माना जाता। इसी प्रकार व्याधियों के भी मन और शरीर दो अधिष्ठान माने गये हैं। जिस प्रकार भौतिक जगत् के आहार, विहार, वातावरण का शरीर पर प्रभाव पड़ता है वैसे ही मन भी इनसे प्रभावित होता है। मन के गुण, दोष, कर्म, कर्म – व्यापार, मानस रोग एवं उनके उपचार का पर्याप्त वर्णन आयुर्वेदिक ग्रंथो मे विस्तृत रुप से मिलता । शरीर और मन को व्याधियों का आश्रय माना गया है। मन का व्यापार इन्द्रियों के बिना भी होता है। कल्पना, तर्क, वितर्क द्वारा मन भूत, भविष्य व वर्तमान तीनों काल पर विचार कर सकता है। मन और आत्मा जीवन के दो प्रमुख तत्व है। पांचभौतिक शरीर में जब तक मन और आत्मा की उपस्थिति रहती है तभी तक जीवन है। शरीर से इनके पृथक होते ही शरीर निष्प्राण सर्वथा निष्क्रिय हो जाता है। आत्मा और मन इनमें यद्यपि आत्मा सर्वधार और प्रेरक है किन्तु कार्यकारी तत्व मन ही है। शरीर के सभी क्रियाओं का संचालन मन के द्वारा ही होता है।

जीवन का मूल तत्व आत्मा ही है। आत्मा न हो तो मन और इन्द्रियां किसी कर्म में प्रवृत नहीं हो सकती । आत्मा रहित प्राणी को मृत की संज्ञा दी जाती है।

आयुर्वेद में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मन का शरीर पर और शरीर का मन पर निश्चित प्रभाव होता है। जैसा मन होगा वैसा ही शरीर निर्मित होता है। इस आधार पर ‘सत्वानुसार काय’ अर्थात् मन के अनुसार शरीर की अवधारणा विकसित हुई है। मन के तीन गुण सत्व, रज तथा तम वर्णित हैं। इनके अनुसार ही सात्विक गुण के आधार पर शुद्ध स्वरुप के 7 प्रकार के शरीर, राजस के आधार पर सदोष 6 प्रकार के शरीर और तामस के आधार पर सदोष 3 प्रकार के शरीर होते है ।

मुख्यतः प्रकृति के दो भेद माने गये हैं।

  • शारीरिक प्रकृति  
  • मानस प्रकृति 

शारीरिक प्रकृति को दोषप्रकृति एवं मानस प्रकृति को महाप्रकृति भी कहा गया है।

जिस प्रकार वात, पित्त एवं कफ की प्रधानता के अनुसार वातज, पित्तज एवं कफज ये तीन प्रमुख शरीर प्रकृतियां हैं, उसी प्रकार सत्व, रज एवं तम की प्रधानता के अनुसार आचार्यों ने 1. सात्विक, 2. राजस तथा 3. तामस इन तीन प्रमुख मानस प्रकृतियां को माना है।

मनोबल

व्यवहार में बार-बार मनोबल का उल्लेख आता है। प्राचीन भारतीय शास्त्रों ने इसे स्वीकार कर बल के आधार पर मन को तीन प्रकार का कहा है।

1. प्रवर सत्व, 2. मध्यम सत्व, 3. अवर सत्व

ये क्रमशः उत्तम मनोबल, मध्यम मनोबल एवं हीन मनोबल के द्योतक है। शास्त्रों में इन मनोबलों के कुछ लक्षण बताये गये हैं ।

1. उत्तम मनोबल -यह व्यक्ति दुःख, परेशानी, शस्त्रकर्म, युद्ध, विषम परिस्थिति में विचलित नहीं होता है। कृश शरीर होते हुए भी निजागन्तु दुःखों से अव्याकुल रहता है। मन को दृढ़ कर सब कुछ सहन करने की क्षमता रखता है ।

2. मध्यम बल – दूसरे व्यक्ति के उदाहरण से स्वयं सहनशक्ति प्राप्त कर लेता है ।

3.हीन मनोबल -न तो स्वयं और न दूसरे के उदाहरण, – आश्वासन से मन को दृढ़ कर पाता है। भय, शोक, लोभ एवं मोह से ग्रसित होता है । भयोत्पादक, विकृत वीभत्स प्रसंग उपस्थित होने पर भयभीत, मूर्च्छित कदाचिद् मुत्यु को भी प्राप्त हो जाता है।

मन की निरुक्ति

मन्यते बुध्यते अनेन इति मनः

अर्थात् जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है वह ‘मन’ है। ‘मन ज्ञाने’ धातु से मन शब्द निष्पन्न हुआ है। आचार्य चरक ने ‘जिसकी उपस्थिति से ज्ञान का होना और अनुपस्थिति से ज्ञान का न होना’ इस प्रकार मन का लक्षण वर्णित किया है।

मन की परिभाषा

सुखाद्युपलब्धिसाधनमिन्द्रियं मनः

सुख, दुःख आदि की उपलब्धि का साधनभूत तत्व है – मन । दूसरे शब्दों में मन वह इन्द्रिय है जिससे सुख, दुःख आदि का ज्ञान होता है। सुख, दुःख की परिभाषा करते हुए आचार्यों ने कहा है- ‘अनुकूलवेदनीयं सुखं प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्’ अर्थात् जो भाव मन में अनुकूल हैं वह सुख हैं और जो भाव मन के प्रतिकूल हैं वह दुःख । इससे स्पष्ट है कि सुख, दुःख आदि की प्रतीति मन द्वारा ही होती है और जो सुख, दुःख आदि की उपलब्धि का साधन है वह मन है।

वह मन तीन प्रकार का है।

1. शुद्ध  2. राजस  3. तामस

जब मन सत्वप्रधान होता है तब शुद्ध कहलाता है, जब रजःप्रधान होता है तब राजस और जब तमः प्रधान होता है। तब तामस कहलाता है ।

मन का स्वरूप

मन का कोई निश्चित स्वरुप नहीं हैं परंतु जो सूक्ष्म, अणु, एक स्पर्शनेन्द्रिय के माध्यम से सर्वशरीर व्याप्त है, जो ज्ञान होने में प्रमुख हेतु है, शरीर में रहते हुए शरीर से बाहर जाता है, स्वप्न और जागृत दोनों अवस्थाओं में क्रियाशील रहता है, जो इन्द्रियों का नियामक है, जो गतिशील है- वह मन है । मन और बुद्धि को आत्मा के सदृश कहकर आचार्य चरक ने इसकी गूढ़ता प्रकट कर दी है।

मन के विशिष्ट व सामान्य गुण
आचार्यों ने मन के अणुत्व और एकत्व यह दो विशिष्ट बताये है। सत्व, रज, तम ये मन के तीन सामान्य गुण गुण है।

मन के दोष

अति शुद्ध एवं प्रकाशक होने के कारण सत्व सर्वदा गुणात्मक होता है, जबकि रज और तम दोष वैषम्य को प्राप्त कर मन को विकृत करने वाले होते हैं, इसलिए रज एवं तम मानस दोष माने गये है।
मन का सम्पूर्ण व्यापार सत्व, रज, तम इन तीन गुणों में सन्निबद्ध है। मन जिस गुण के प्रभाव क्षेत्र में रहेगा, तदनुसार कार्य करेगा। सत्वगुण अत्यन्त शुद्ध प्रकाशक, अविकारी होने से रोगोत्पत्ति नहीं करता, इसलिए उसे गुण तो माना है, किन्तु उसकी मानसिक दोषों में गणना नहीं की गयी हैं। रज और तम विकारी होने से इनकी मनोदोष संज्ञा भी है। वस्तुतः हमारी तमाम मानसिक व्याधियों के लिए राजस या तामसिक प्रवृतियाँ ही उत्तरदायी हैं। राजस प्रवृत्तियों में उच्च महत्वाकांक्षाएँ, यश–मान की इच्छाएँ, पद-प्रतिष्ठा की अभिलाषाएँ, बनाव-श्रृंगार, राजसी रहन-सहन, वाद- विवाद, धन-साधन संग्रह आदि तथा तामसिक प्रवृत्तियों में दूसरे का अहित, व्यसन, कामवासनाएँ, मोह, मद, आलस्य, अकारण, द्वेष – दुश्मनी आदि है ।

मन के अर्थ
महर्षि चरक ने मन के अर्थ चिन्त्य, विचार्य, उह्य, ध्येय, संकल्प और अन्यविषय माने है-

1. चिन्त्य – किसी भी कार्य को करने से पहले व्यक्ति यह चिन्तन करता है कि इसे किया जाय या नहीं, यही ‘चिन्त्य’ है।

2. विचार्य – किसी भी कार्य के करने या न करने से क्या परिणाम होगा, क्या हानि-लाभ होगा यही विषय ‘विचार्य’ कहलाता है।

3. उह्य –  किसी भी विषय के सम्बन्ध में जो सम्भावना व्यक्ति की जाए वह उह्य है। जैसे इस प्रकार से होगा, यह ऐसा नहीं होगा इस प्रकार की ऊहापोहात्मक स्थिति को ‘उह्य’ कहा है ।

4. ध्येय – जिसका ध्यान करके परिकल्प कल्पित रूप में – जाना जाय जिसमें भावनात्मक ज्ञान निहित हो वह विषय ध्येय’ कहलाता है । –

5. संकल्प – यह गुणवान व दोषवान् है इस तरह निश्चिय जहाँ किया जाय वह ‘संकल्प’ है।

6.अन्य विषय – इसके अतिरिक्त अन्य जो भी विषय मन के – द्वारा ग्रहण किये जाते हैं वे सभी मन के अर्थ कहलाते हैं। यह ऐसी व्यापक परिकल्पना है कि सम्पूर्ण व्यापारों का इसमें समावेश सम्भव है।

मन के कर्म
1. इन्द्रियाभिग्रह – इन्द्रियों को अपने वश में रखना ।

2. स्वयं का निग्रह – मन अपने आप पर नियंत्रण करता है।

3. उह्य – उह्य संभावना है। यह सम्भावना बाह्य इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान पर आधारित मन पूर्व स्मृतियों के साथ करता है ।

4.विचार – हेय और उपादेय की दृष्टि से कहीं विकल्पन किया जाय अर्थात् यह अनुपयोगी है यह उपयोगी है, ऐसा विचार करना तो इसे विचार कहते है। द्विविधा पूर्ण विचार आदि मन का कार्य है। इससे परे बुद्धि की प्रवृत्ति होती है ।

मन का स्थान

मन का स्थान हृदय है। कहीं कहीं मन का स्थान मस्तिष्क बताया है। इस प्रकार का स्पष्ट वर्णन आयुर्वेदिय संहिताओं में अनेकशः किया गया हैं। योगशास्त्र ने मन का स्थान मस्तिष्क में सहस्त्रार पद माना है, जिसमें मन निवास करता है। उपर्युक्त विवेचन से निष्कर्ष यह निकलता है कि मन का वास्तविक स्थान हृदय है, परन्तु उसकी विशिष्ट कार्यस्थली मस्तिष्क है।

मानस शरीर
मन में कोमलता, कठोरता, निर्लज्जता और लज्जा आदि अनेक गुण रहते हैं, उसी तरह शरीर में भी उन्हीं से मिलते-जुलते लक्षण दिखते हैं अर्थात मनुष्य का शरीर उसके मन के अनुसार होता है और मन शरीर के अनुसार होता है।

मस्तिष्क समूचे कार्य तंत्र का संचालक है तथा विचारों का उद्गम केन्द्र भी यही है। एक ओर शांत और प्रसन्न मन जहां प्रगति का अभ्युदय द्वार खोलता है, वहीं दूसरी ओर चिंतित, अशांत और उद्विग्न मन अनेकानेक विपदाएं खड़ी कर देता है। जिससे मनोमालिन्य बढ़कर विनाश के पथ पर चलने को विवश कर देता है। विचार तंत्र के डगमगा जाने पर सभी कुछ कार्य नशेवत हो जाते हैं और मन उद्विग्नावस्था को प्राप्त हो जाता है । उद्विग्न मस्तिष्क का शारीरिक स्वास्थ्य पर बहुत घातक प्रभाव पड़ता है।

मानसिक रोग के सामान्य कारण
आयुर्वेद में रोगों के कारणों का उनके वर्गीकरणों के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णन मिलता है। रोग के कारणों में मन की भूमिका को स्वीकार करते हुए स्वतंत्र रूप से मानस कारणों का वर्णन किया है। आचार्य चरक द्वारा वर्णित तीन प्रमुख रोग कारणों में असात्म्येन्द्रियार्थ संयोग, प्रज्ञापराध और परिणाम में भी मन की भूमिका प्रमुख है

1. प्रज्ञापराध – जिस प्रकार समस्त आगन्तुज व्याधियों का कारण प्रज्ञापराध है, उसी प्रकार समस्त मानस रोगों का मुल हेतु प्रज्ञापराध बताया गया है। संक्षेप में प्रज्ञा के अपराध से तात्पर्य है- अज्ञानता और दुर्ज्ञानता (विषय का असम्यक ग्रहण- ज्ञान ) ।

2.ब्रह्मचर्य – अबह्मचर्य और ब्रह्मचर्य अतिरेक इन दोनों कारणों से मानस विकार होते है। अति ब्रह्मचर्य पालन से भी मनःक्षोभ होता है। काम (मैथुन) मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति पर अत्यधिक नियंत्रण करने से मन का क्षोभ आदि परिणाम होकर मानसिक विकृति होती है।।

3.दुर्बल सत्व – मन का दुर्बल होना, प्रकृतितः जो व्यक्ति हीनसत्व होते हैं वह सत्व का दुर्बल स्वरुप है। ऐसे व्यक्तियों में क्रोधादि मनोभावों की अनियंत्रित उत्पत्ति होती है जिसके कारण मानस विकार होते हैं।

4. दुर्बल शरीर

5. शरीर दोषों का वैषम्य 

6. आगन्तुक कारण – मलिन आहार-विहार सेवन, मनोभिघात ।

मानसिक रोगों के आभ्यंतर कारण

1.मोह – मोह की अवस्था किसी वस्तु, – मनुष्य या प्राणी विशेष के प्रति मन का जो लगाव (Affection) होता है अर्थात् मन की प्रीति (प्रेम) की चरम सीमा का नाम मोह है।

2. शोक – किसी प्रिय वस्तु के खो जाने से मन के जो भाव होते हैं वही शोक की अवस्था होती है।

3.क्रोध – जब मनुष्य के विचारों के विरूद्ध कार्य होता है या उसके विचारों को कुचला जाता है तो उसे क्रोध उत्पन्न होता है। इसमें उसकी विवेक शक्ति हीन हो जाती है। पित्त का प्रकोप होता है।

4.हर्ष – जब मनुष्य को मनचाही वस्तु प्राप्त हो जाये, जो उसने स्वप्न में भी न देखी हो, जैसे लाटरी निकलना, असम्भव का सम्भव बनना – हर्ष कहलाता है ।

5. लोभ – यह मन की वह अवस्था है। जिसमें वांछित वस्तु को किसी भी तरीके से पाने का यत्न करता है, अर्थात् अपने हक से अधिक माँगता है । न मिलने पर इसमें क्रोध उत्त्पन्न होता है ।

6.भय – इसे मनुष्य का शत्रु माना गया है । सामान्यतः-भय के विषय में सोचने वाला कभी दुःसाहस नहीं करता है ।

7. श्रद्धा – दृढ़ विश्वास का दूसरा नाम श्रद्धा है। किसी के प्रति सम्मान प्रकट करना श्रद्धा है। श्रद्धा बड़ों के प्रति होती है। जैसे- माँ-बाप, गुरूजन, गो-ब्राह्मण आदि ।

8. आवेश – यह क्रोध की वह स्थिति है जब प्राणी किसी बात को सहन नहीं कर पाता और उस बात को अनुचित समझता है।

9. लज्जा – मनुष्य किसी काम को करते समय जब यह सोचता है की अनुचित है तो वह उस काम को छुपा कर करने का प्रयत्न करता है।

10. शील – वह भाव जो मानव अपने वातावरण से लेता है या माता-पिता या संस्कारों से लेता है वही शील है।

11. शौर्य (धैर्य) – धन्वन्तरि ने शुक्र का पहला गुण धैर्य बताया है और डल्हण ने धैर्य के अर्थ में लिया है और कहा है कि काम लीन पुरुष शुक्र क्षीणता के कारण ही अपने धैर्य का नाश कर देता है।

12.आचार – आचार का अर्थ व्यवहार, आचरण, स्वभाव के ऐसे नियम जिन पर नित्य प्रति चलना है। यह आचार वास्तव में सद्वृत का पालन करना ही है

13.ओजःक्षय – आचार्यों ने ओज को धातुओं में नहीं गिना है । धातुओं के पश्चात जो बल शरीर में बनता है उसे ओज कहते है । ओज के क्षय से शरीर को इतनी हानि नहीं होती जितनी मन की होती है। ओज के क्षीण होने पर मन भी क्षीण हो जाता है। मन दुर्बल, भयभीत चिन्तित हो जाता है तथा अन्य इन्द्रियों में विकार उत्पन्न हो जाते हैं। शरीर का वर्ण बदल जाता है तथा शरीर कृश हो जाता है।

मानस रोगों के सामान्य लक्षण

रज-तम के प्रकोप से उत्पन्न होने वाले लक्षण ही मानस व्याधियों के सामान्य लक्षण निम्नलिखित हैं-

बुद्धिभ्रम, मन का विचलित होना, हृदयस्थान में पीड़ा या खालीपन की प्रतीत होना, व्याकुल दृष्टि, अधीरता, वाणी में अस्थिरता, मोह आदि। आचार्यों ने उन्माद, अपस्मार, अतत्वाभिनिवेश के भी यही सामान्य लक्षण वर्णित किये हैं।

उन्माद के सामान्य लक्षण – बुद्धिभ्रम, मन का विचलित होना, व्याकुल दृष्टि, अधीरता, वाणी में अस्थिरता, हृदय – शून्यता आदि ।

मानस रोगों का वर्गीकरण

मानस रोगों को निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।

1. निज – जो रज, तम की विकृति से उत्पन्न होते हैं ।

2. आगन्तुज – ग्रह, भूत, पिशाच, अभिशाप आदि के कारण उत्पन्न होते हैं ।

निज मानस रोग

A) मानस दोष जन्

1)काम (Lust) 2) क्रोध (Anger) 3) लोभ (Greed ) 4) मोह (Delusion) 5) ईर्ष्या (Jealousy) 6 ) मान (Pride) 7)मद (Neurosis) 8) शोक (Grief) 9) चिन्ता (Depression) 10 ) उद्वेग (Anxiety) 11) भय (Fear) 12 ) हर्ष (Euphoria) 13 ) अभ्यसूया (Anxious) 14) मात्सर्य (Aggressive) 15 ) दम्भ (Hypomaniac) 16) विषाद् (Paranoid) 17)दैन्य (Melancholic)

B) शरीर दोषानुबन्ध जन्य तथा शरीर दोष प्रकोप से होने वाली मानस दोष विकृति जन्य :

1)उन्माद (Psychosis) 2) अपस्मार (Epilepsy) 3) अपतन्त्रक (Hysteria) 4) अतत्वाभिनिवेश (Obsession ) 5) भ्रम (Vertigo) 6 ) तन्द्रा (Drowsiness) 7) क्लम (Neurasthenia) 8 ) मद (Psychoneurosis) 9) मूर्च्छा (Fainting) 10) सन्यास (Coma) 11) मदात्यय (Alcoholism) 12) गदोद्वेग (Hypochondriasis) 14) विभ्रम (Phobia)

आगन्तुज मानस रोग

1. भूत बाधा जन्य मानस रोग विशिष्ट अमानुषीय योनियों (भूतों) का शारीरानुप्रवेश होकर मानसिक दोषों की विकृति होने से अथवा मानसिक दोषों की विकृति हुए बिना भी मानसिक भावों में विकार उत्पन्न हो जाता है।

2. ग्रहबाधा जन्य मानस रोग प्रायः बालकों में होने वाले विकार है । इन के साथ शारीरिक विकार भी स्पष्ट देखे जा सकते है

3. मानस प्रकृतियों से सम्बन्धित विकार ।

अक्षम व्यक्तित्व जन्य मानस रोग (Personality)
अ) सत्वहीनता (Inadequate personality)

ब) अमेधता (Mental Deficiency)

स) विकृत सत्व (Psychopathic apsychopathic personality)

मनोदैहिक रोग (आधिव्याधि)

अ) भयज व शोकज अतिसार (Nervous dirrhoea)

ब) कामज, शोकज ज्वर (Nervous pyrexia)

स) आमवात (Rheumatoid Arthritis)

क) तमक श्वास (Bronchial Asthma )

मानसिक तनाव रोगों का मुख्य कारण

मानसिक तनाव के फलस्वरूप अनेक शारीरिक व्याधियाँ भी होती है जैसे उच्च रक्तचाप, अम्लपित्त (Acidity), आमाशय व्रण ( Peptic ulcer), दमा (Asthma), हृदयाघात ( Heart attack), गठिया, स्त्रियों में रजःकृच्छ्रता आदि। यह उम्र के प्रभाव (Ageing process) को तीव्र कर जल्दी बुढ़ापा ला देता है । अतः मनोचिकित्सक का परामर्श लें

मानसिक तनाव एक बहु प्रभावी कारण है, जो मन एवं शरीर को कुप्राभावित कर उन्हें रोगग्रस्त कर देता है। स्त्रियों की अपेक्षा पुरूष तनावग्रस्त अधिक होते है। यूँ तो किसी भी उम्र में तनाव हो सकता है किन्तु 40-50 वर्ष की आयु में लोग अधिक तनावग्रस्त होते हैं। अल्प आय (कमाई ) एवं व्यसन की लत व्यक्ति को अधिक तनावग्रस्त बना देती है । राजस प्रकृति के व्यक्तियों में तनाव की अधिकता सात्विक भावों, ध्यान, योग की उपयोगिता सिद्ध करती है। मानसिक तनाव से रक्तचाप बढ़ता है। आज का व्यक्ति आर्थिक तनावों से अधिक पीड़ित है। ये व्यक्ति स्वतः को ही अधिक विपरीत स्थितियों में पाते हैं। मानसिक तनाव से बौद्धिक कार्य बहुत प्रभावित होता है। इसमें व्यक्ति कम कार्य कर पाता है, अशुद्ध कार्य करता है तथा जल्दी थक जाता है। तनाव से स्मरण शक्ति भी कम होती है।

अवसाद (Depression)

आज मानसिक तनाव के बाद सर्वाधिक रोगी अवसाद के ही मिल रहे हैं। वस्तुतः मानसिक तनाव और अवसाद एक-दुसरे से जुड़े हुए हैं। व्यक्ति में जब तक संघर्ष – क्षमता रहती है वह तनावग्रस्त रहता है और जब संघर्ष-क्षमता कम होने लगती है। तो वह हताशा – निराशा में डूब कर अवसाद रोगग्रस्त हो जाता है। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अवसादात्मक मनोरोग (Depressive psychosis) अधिक मात्रा में मिलते हैं। नवीन अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि उच्च प्रशिक्षित व्यक्तियों में अवसाद की मात्रा बढ़ रही है। वर्तमान सामाजिक स्थितियों में बुद्धिमान् व्यक्तियों में निराशा का भाव आना स्वाभाविक है । अवसादग्रस्त रोगियों में सबसे दुःखद पहलू होता है- आत्महत्या की प्रवृति ( Suicidal tendency)। वर्तमान में बढ़ रही आत्महत्याओं का कारण भी यही है कि अवसाद की मात्रा बढ़ रही है।

 उन्माद (Mania / Psychosis)

आयुर्वेद में मानसिक रोगों में इसे सबसे जटिल एवं उग्र माना गया है। सामान्यतया मन और बुद्धि के विभ्रम से उत्पन्न मानसिक रोग को उन्माद कहा जाता है।

प्रकार :-

1. मनोविभ्रम

2. बुद्धिविभ्रम

3. संज्ञाविभ्रम

4. स्मृतिविभ्रम

5. भक्तिविभ्रम

6. शीलविभ्रम

7. चेष्टाविभ्रम

8. आचारविभ्रम

अपस्मार (Epilepsy)

‘अप’ शब्द गमनार्थ का वाचक है और ‘स्मार’ से तात्पर्य है- स्मरण अर्थात् जिस रोग में स्मरणशक्ति का लोप हो जाता है, उसे ‘अपस्मार’ कहते है। चरक ने इसकी परिभाषा करते हुए कहा है- बुद्धि और मन के विभ्रम के कारण चेष्टा करते हुए किंचितकालावस्थायी अन्धकार में डूबते हुए सी प्रतीति (संज्ञा – शून्यता) को अपस्मार कहते है। सुश्रुत के अनुसार इसमें रोगी स्मरण- ज्ञान के नाश हो जाने से स्थान में गिरकर प्राणनाश कर देता है। अतः इसे अपस्मार कहते हैं।

अतत्त्वाभिनिवेश

जिस मानसिक विकार में तत्त्व अर्थात् सत्य अर्थ का बोध न होकर अतत्त्व अर्थात् असत्य विषय का अभिनिवेश ( आग्रहपूर्वक स्वीकार अर्थात् ग्रहण) होता है उसे ‘अतत्त्वाभिनिवेश’ कहते है ।

इसमें नित्य और अनित्य, हित और अहित विषम बुद्धि उत्पन्न होती है। यही इसका प्रत्यात्म लक्षण है। साथ ही व्याकुलता, मूढ़ता, अल्पचेतना ये लक्षण भी मिलते है।

मदात्त्यय

अत्यधिक मद्य पीने से शरीर में विकृति हो जाये उससे जीना दूभर हो जाये तो उसे मदात्यय हैं। शोधों से स्पष्ट हुआ है कि मद्यपान करने वालों में अधिकांश व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ होते है। पहले मानसिक उद्विग्नता होती है तब व्यक्ति मद्य की ओर आकृष्ट होता है। प्रारम्भ में इन मानस कारणों से व्यक्ति शराब पीना शुरू करता है। वह उसका आदी (Addict) हो जाता है। वर्तमान मद्य के अत्यधिक प्रचलन के पीछे मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्री वर्तमान मानस अस्वस्थता को ही कारणीभूत मानते हैं।

निद्राल्पता

निद्रा अर्थात् नींद और अल्पता शब्द न्यूनता का बोधक है । निद्रा का उचित मात्रा से कम आना अर्थात् वय, प्रकृति के अनुसार जितनी कालावधि में निद्रा की आवश्यकता होती है, उस कालावधि से कम मात्रा में निद्रा आना निद्राल्पता है ।

स्मृतिदोष

स्मृति के मुख्यतः दो विकार वर्णित है-

1. स्मृतिभ्रंश, 2. स्मृतिनाश

स्मृतिभ्रंश – समय पर किसी विषय का स्मरण न हो पाना ही स्मृतिभ्रंश हैं। प्रायः यह देखा जाता है कि व्यक्ति अधिक उत्सुक या चिन्तातुर है तो बात याद नहीं आती है और नहाते समय, सोते समय वही बात सहज ही याद आ जाती है। यह भी मन की एकाग्रता से जुड़ी हुई प्रक्रिया है ।

स्मृतिनाश -स्मृति का पूर्णतः लोप हो जाना स्मृतिनाश है। यह मस्तिष्कगत अर्बुद, रक्तस्त्राव, शोष अथवा शिरो आघात के परिणामस्वरूप मिलती है। अत्यन्त वृद्धावस्था में भी इसके लक्षण मिलते है । अल्जाइमर के रोगी में भी स्मृतिनाश का लक्षण मिलता है।

सामान्य चिकित्सा

चिकित्सा करते समय सत्ववृद्धि एवं रज तथा तम के शमन हेतु उपाय किए जाते हैं। जैसे शरीर के रोगों में शोधन एवं शमन चिकित्सा है इसी प्रकार मानस रोगों में भी चित्तप्रसादन एवं रज एवं तम के शमन के लिए उपाय निर्दिष्ट किए है।

आचार्य चरक ने मानस रोगों में त्रिविध चिकित्सा बताई है-

1. दैवव्यपाश्रय (Divine therapy)

2. युक्तिव्यपाश्रय (Logical therapy)

3. सत्वावजय (Psychotherapy)

दैवव्यपाश्रय

इनमें प्रथम दैवव्यपाश्रय औषध को भेषज कहा जाता है। जिसमें व्रत, तप, दान एवं हवन आदि का विधान हैं

कतिपय शारीरिक एवं मानसिक रोग विभिन्न ग्रहों के कारण होते हैं। इन ग्रहों की शान्ति विभिन्न धातुओं एवं वानस्पतिक द्रव्यों के प्रभाव से होती है। यथा – सूर्यग्रह स्वर्ण एवं अपामार्ग से, चन्द्र रजत एवं मंदार से, मंगल ताम्र एवं पलाश से, बुध पीतल एवं खदिर से गुरू कांसा एवं उदुम्बर से, शुक्र पारद एवं अश्वत्थ से तथा शनि ग्रह लौह एवं कुश से शान्त होते हैं।

युक्तिव्यपाश्रय

इसमें द्रव्यों का प्रयोग होने से इसे औषधि चिकित्सा भी कहा गया है। युक्तिव्यपाश्रय चिकित्सा में उपयोगी कतिपय वानस्पतिक द्रव्यों का प्रयोग विभिन्न मानसिक रोगों में बतलाया गया है।

औषधीय उपचार के लिए चरक संहिता में वर्णित मेध्य संज्ञास्थापन तथा वेदना स्थापन गणों की योजना की गई है और सुश्रुत संहिता के रसायन अधिकार में मेधायुष्यकामीय रसायन का उल्लेख है उसका प्रयोग अवस्थानुसार करना हितकर है। मानसिक रोगों में वातवह संस्थान (Nervous System) प्रभावित होता है तथा वातवैगुण्यता की प्रधानता इस तरह के रोगियों में मिलते हैं। इसलिए वातवह संस्थानपर औषध द्रव्यों के प्रभाव के अनुसार एवं शरीर में होने वाली क्रिया के आधार पर नाड़ीबल्य औषध अवसादक, संज्ञाहर, निन्द्राकर आदि द्रव्यों द्वारा चिकित्सा हितकर है। इसी प्रकार वात संशमन वर्ग की एवं दशमूल गण की वनौषधियां हितकर है ।

विशेष रूप से ब्राह्मी, शंखपुष्पी, जटामांसी, वचा, ज्योतिष्मती, मुलैठी, मण्डूकपर्णी, अर्जुन, विजया, पारसीक, यवानी, सर्पगन्धा, अश्वगंधा, तगर, हींग, लहसुन, गोरखमुण्डी, विषमुष्ठी, बादाम, सुषवी, उदसलीब, अहिफेन आदि कतिपय द्रव्य विशेष लाभ करते है । पार्थिव एवं प्राणिज्य द्रव्यों में शिलाजीत, स्वर्णभस्म, जहर मोहरा, मुक्तापिष्ठी, कस्तूरी, अग्निजार, घृत आदि द्रव्य उपयोगी हैं। उपरोक्त औषध द्रव्यों के विभिन्न योग मस्तिष्क एवं सुषुम्ना के उत्तेजक, अवसादक कार्मकुता के कारण लाभकर है।

चित्तोद्वेग के रूग्ण को निम्नलिखित औषधि चिकित्सा देने से लाभकारी परिणाम मिलते है । • लघु सूतशेखर वटी, 1-1 गोली दिन में तीन बार  • सारस्वतारिष्ट 15 ml तीन में 3 बार सममात्रा पानी के साथ • शतावरी पाक दिन में दो बार दूध के साथ लें।

सामान्य उपयोगी नुस्खे

1. सामान्यतया ब्राह्मी स्वरस के साथ पंचगव्यघृत मिलाकर सेवन करें।

2. शंखपुष्पी स्वरस कूष्माण्ड पाक या ब्राह्मीपाक या ब्राह्मीघृत के साथ सेवन करें। 3. मुलैठी या हल्दी चूर्ण गोदुग्ध के साथ सेवन करें।

4. गिलोय का रस नियमित सेवन करें।

5. रसोन कल्क तिलतैल के साथ प्रयोग करें।

6. शुद्ध वचा चूर्ण 500 मि.ग्रा दिन में दो बार शहद के साथ सेवन करें 

7. शतावरी, बादाम रोगन का प्रयोग करें। 8. नियमित रूप से योगाभ्यास एवं प्राणायाम करें।

9. ब्राह्मीवटी, सारस्वतारिष्ट, सारस्वतघृत,

जटामास्यादिक्वाथ एवं अश्वगन्धा घृत का प्रयोग

हितकर पाया गया है।

10. क्षीरबला, मण्डूकपर्णी, मधुयष्टी, जटामांसी का सेवन लाभकर है।

11. क्षीरधारा, अभ्यंग, अवगाहन एवं स्नान के साथ क्षीरधारा का प्रयोग तीन माह पर्यन्त करने से विशेष लाभ देखा गया है।

12. सर्पगन्धा चूर्ण, सर्पगन्धा घनवटी तनाव, चिड़चिडेपन एवं उच्च रक्तचाप (हाई ब्लडप्रेशर) में उपयोगी है।

13. प्राणायाम विशेषकर कपालभाति एवं गायत्री मंत्रजप लाभकर है 

14. मानसिक रुग्णों के लिए संगीत मन को सुकून देने का कार्य करता है। इसे सुनने से मन प्रसन्न होकर रोग में अच्छा परिणाम मिलता है।

रसायन चिकित्सा

रसायन चिकित्सा से शारीरिक एवं मानसिक दोनों तरह से स्वास्थ्य की रक्षा एवं रोगों का निवारण सम्भव है। ये रसायन कष्ठौषधियाँ दो वर्गों में रखी जा सकती हैं। प्रथम वे औषधियां जो रसायन के रूप में सार्वदेहिक (सामान्य रसायन) लाभ के साथ-साथ अंग विशेष अर्थात् मेधा (धी, धृति एवं स्मृति) पर भी गुणकारी होती हैं। ऐसी कुछ औषधियों का उदारहण स्वरूप नामोल्लेख किया जा रहा है.

अगस्त्य पुष्प, अतिबला मूल, काश्मर्यफल, नागबला मूल, पर्णीचतुष्टय, पुनर्नवा मूल, भल्लातक, खदिर, गोक्षुर मूल पंचांग, चित्रक मूलत्वक, तालमूली कन्द, तिनिश पंचांग, तिल, तुवरकबीज, त्रिफला, धव, शतावरी मूल, शण, पष्टिक, हरीतकी फल, हस्तिकर्ण मूल, द्वितीय वे औषधियाँ हैं जिनके रसायन कर्म के साथ उनके मेध्य कर्म पर बल दिया गया है। अथवा इन्हें मेध्य रसायन की श्रेणी में रखा गया है। इन औषधियों के प्रयोग से धी, धृति एवं स्मृति में विशेष लाभ शास्त्र में कहा गया है। ऐसी काष्ठौषधियों के कुछ उदारहण इस प्रकार हैं-

अश्वगंधा मूल, कमल, काकमाची पंचांग, कुमुद, कुष्ठमूल, कूष्माण्ड, गजपिप्पली, गिरकर्णिका, गुडूची, दर्भमूल पुष्प, पिप्पलीफल मूल, बलामूल, बाकुची बीज, बिल्व, ब्राह्मी (ऐन्द्री) पंचांग, मण्डूकपर्णी पंचांग आदि ।

उपरोक्त औषधियों को प्रायः एकल या दो तीन घटकों के साथ प्रयोग किये जाने का निर्देश है इसके अलावा ब्रह्मरसायन, चन्द्रप्रभावटी, मन्मन्थाम्र रस, सिद्धमकरध्वज का प्रयोग विशेष कर देखा गया है। रोगियों के दिनचर्या में अस्थिरता से ही मानसिक तनाव रहता है व मानस रोगो में इन रसायन प्रयोगों का विशेष लाभ देखा गया है।

सत्वावजय चिकित्सा

सत्वावजय औषधि में रागादि रोगों से अशान्त मन को शान्त करने का विधान है। जिसमें आचार रसायन के अतिरिक्त गुरू या सन्यासी या महात्मा अपने मधुर वाणी द्वारा ( प्रवचन से ) व्यक्ति का मन अहितकर विषयों से हटाकर मानसिक वेदना को शान्त करते हैं। इसी अर्थ में ‘भैषज्यं गुरवे’ कहा गया है। इनके द्वारा जो आत्मा आदि का ज्ञानकराया जाता है, वह मानसिक दोषों (रोगों) की श्रेष्ठ चिकित्सा है।

मानसिक स्वास्थ्य पर सत्वावजय का अपना विशेष महत्व है जैसा कि हमारा विषय आयुर्वेद द्वारा मानसिक स्वास्थ्य है । सत्वावजय का अर्थ है सत्व (मन) का अवजय अर्थात् मन पर काबू पाना । सत्वावजय को सद्वृत्त भी कहते है इसके चार प्रकार निम्न है –

मानसिक सद्वृत्त

विवेक के अनुसार कार्य करें। प्रसन्नचित रहें । राग एवं द्वेष के कारणों को समाप्त करें। चित्त की चंचलता को रोकें । इन्द्रियों का इन्द्रियार्थों से असात्म्य संयोग का त्याग करें। क्रोध, ईर्ष्या एवं चिन्ता से मुक्त रहें इत्यादि ।

चारित्रिक सद्वृत

सत्याचरण करें। हितभाषी एवं मितभाषी बनें। क्षमा, धैर्य एवं लज्जा धारण करें । इन्द्रिय लोलुप न बनें। परधन की इच्छा से मुक्त रहें। पर स्त्री के सम्पर्क से दूर रहें।

सामाजिक सद्वृत

  • “अतिथि देवो भव” का पालन करें।
  • ज्ञानवृद्ध एवं वयोवृद्ध का सम्मान करें ।
  • सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव जागृत करें
  • लोगों से झगड़ा न करें।
  • राजद्रोहियों से दूर रहें।
  • अव्यावहारिकता का त्याग करें।

वैयक्तिक सद्वृत

  • दिनचर्या, रात्रिचर्या एवं ऋतुचर्या का पालन करें।
  • स्वच्छता पर विशेष ध्यान दें ।
  • ध्यानपूर्वक देखते हुए चलें 
  • विद्याभ्यास में कमी न करें ।
  • मद्यपान न करें।
  • दीर्घसूत्री न बनें

बचाव

समस्यायें रोग उत्पन्न करें इसके लिए हमें समय से सचेत हो जाना चाहिए 

1. हमारा प्रतिदिन का आहारविहार संतुलित एवं ऋतु तथा प्रकृति के अनुकूल हों।

2. अपनी स्थिति के अनुरूप प्राप्य संसाधनों से संतोष हो 

3. काम, क्रोध लोभादि पर नियंत्रण रखें

4. प्रत्येक कार्य समय पर पूरा करने का प्रयत्न करें।

5. ईर्ष्या  करें, धैर्य धारण कर दूसरों के सदुपदेशों को सुनें 

योग चिकित्सा

मानसिक रोगी के लिए योग चिकित्सा वरदान सिद्ध हुई है । शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक पक्षों का एक रूपान्तर कर योग चिकित्सा की जा सकती है। सिद्धासन, पद्मासन, भद्रासन, मुक्तासन, वज्रासन, स्वस्तिकासन, शवासन, सिंहासन, गोमुखासन, वीरासन, धनुरासन, मृतासन, सुप्तासन, मत्स्यासन आदि योगासनों द्वारा शारीरिक विकास किया जा सकता है।

प्राणायाम करने से शरीर व मन में नई चेतना पैदा होती  है । सभी प्रकार की वृत्तियों के निरोध को प्राणायाम कहते  है ।

मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए प्रतिदिन ध्यान अवश्य करना चाहिए क्योंकि इससे व्यक्ति का मन एकाग्रचित होने से विचलित नहीं होता व मन की शान्ति प्राप्त करता है। मन की शान्ति ही मानस स्वास्थ्य (Mental Health) का मुख्य प्रयोजन है । 

पंचकर्म

पंचकर्म के द्वारा शरीर शुद्धिकर रसायन चिकित्सा दी जाती है। तत्पश्चात सत्वावजय चिकित्सा के द्वारा रोगी की काउंसलिंग कर शरीर व मन का सामंजस्य बिठाया जाता है। पंचकर्म में वमन, विरेचन, शिरोधारा, क्षीरधारा, शिरोबस्ति, नस्य, स्नेहन, स्वेदन किया जाता है।

आहार

पोषक आहार जैसे दूध, बादाम, घी, फल, हरी सब्जियां, साबूत अन्न सेवन का परामर्श रोगी को दिया जाता है। चिकित्सा काल में देर से पचने वाले पदार्थ चाय, कॉफी, धूम्रपान, मद्यपान का सेवन वर्ज्य है ।

मानसिक रोगियों में आत्मविश्वास व इच्छाशक्ति की कमी पाई जाती है। विश्वास मानसिक स्थिरता की स्थिति है। और विश्वासहीनता मानसिक अस्थिरता की। अतः जिस मनुष्य का किसी पर भी विश्वास नहीं, वह अशांत और दुःखी रहता है, उसका मन स्वयं के नियंत्रण में नहीं रहता।

मानसिक स्वरूप का मूल विश्वास ही है। मानसिक रोगी संशयात्मा और अस्थिर मति होता है। उसे किसी पर विश्वास नहीं रह जाता । उसे स्थिरमति बना देना ही उसका सबसे बड़ा उपचार करना है। प्रायः सभी प्रकार की मानसिक चिकित्सा विधियों का ध्येय रोगी के मन में स्थिरता अथवा विश्वास उत्पन्न करना है । मान्त्रिकों – तान्त्रिकों की झाड़- फूँक द्वारा की जानेवाली चिकित्सा का मूल आधार विश्वास है।

रोगी के हृदय में चिकित्सक के प्रति विश्वास उत्पन्न हो, इसके लिए चिकित्सक को रोगी के प्रति सच्ची सहानुभूति और प्रेम प्रदर्शित करना आवश्यक है। मानस रोगी के विचार निराशावादी और संशयात्मक होते । वह सभी के प्रति शंकालु रहता है । उसे सभी लोग स्वार्थी दिखाई देते हैं । यदि चिकित्सक में रोगी के प्रति सच्चा प्रेम की कसौटी त्याग है, स्वार्थ पूर्ति नहीं । अतएव रोगी में अपने प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए चिकित्सक को रोगी की निःस्वार्थ सेवा करना आवश्यक है।

पूर्णरूप से मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त करने का एकमात्र साधन और कसौटी आत्मविश्वास प्राप्त करना है। इस प्रकार इच्छा-शक्ति और आत्मविश्वास द्वारा स्वास्थ्य – संरक्षण के साथ-साथ रोगों के उक्त उपचार में भी लाभ मिलता है।

डॉ. जी.एम. ममतानी
एम.डी. (आयुर्वेद पंचकर्म विशेषज्ञ)

‘जीकुमार आरोग्यधाम’,
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