Panchkarma-in Arthritis

वातरोग दुश्चिकित्सीय व्याधियां हैं सिर्फ औषधि पर निर्भर रहकर इस रोग में लाभ नहीं हो सकता औषधि के साथ-साथ आयुर्वेदीय पंचकर्म चिकित्सा का भी इस व्याधि मैं महत्व है। इस व्याधि में उपयोगी पंचकर्म चिकित्सा का वर्णन इस लेख के माध्यम से कर रहे है।

जोड़ों के दर्द से परेशान कई रोगी सामान्यतः दर्द निवारक औषधियां खाकर चैन की सांस तो लेते हैं, परंतु अगले दिन फिर वही तीव्र पीड़ा की अनुभूति इस तरह प्रत्येक दिन उन्हें औषधि पर निर्भर रहना पड़ता है और साथ में मोल लेने पड़ते हैं अनेक साइड इफेक्ट्स जैसे-पेट में अल्सर, शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा में वृद्धि, गुर्दे व लिवर में खराबी इत्यादि । इन सब परेशानियों से राहत पाने के लिए आयुर्वेदिक चिकित्सा के अंतर्गत पंचकर्म का विशेष स्थान है।

वातरोग में पंचकर्म चिकित्सा विधि का विशेष महत्व है। वमन कर्म को छोड़कर विरेचन, अनुवासन बस्ति, निरूह बस्ति एवं नस्य कर्म का विशेष रूप से उपयोग किया जाता है। परंतु वातकफज रोग में कहीं-कहीं वमन कर्म किया जाता है। इसके अलावा पूर्वकर्मों यथा-स्नेहन, स्वेदन की विभिन्न विधियों के बिना वातविकारों की सफलतम चिकित्सा की कल्पना नहीं की जा सकती l

स्नेहन (मालिश) – जोड़ों से संबधित रोगों में तेल मालिश से – जोड़ों का कड़ापन कम हो जाता है, जोड खुल जाते हैं और स्नायु मजबूत होते है। इसके अलावा यह वायु को नष्ट कर शरीर में मृदृता उत्पन्न करता हैं, मलों की रूकावट दूर करता है और बल पुष्टि के साथ ही व्याधिप्रतिरोधकशक्ति (Immunity Power) बढ़ती है।

कटिबस्ति – कटि प्रदेश (कमर का भाग) पर आटे का गोल घेरा बनाकर उसमें तैल को रखना ही कटिबस्ति कहलाया जाता है l यह प्रक्रिया मुख्यतः कमर दर्द, साइटिका, लंबर स्पांडिलाइटिस, स्लिप डिस्क, लम्बर कैनाल स्टेनोसिस जैसे रीढ़ के विकारों में उपयुक्त पाई गई है।

जीकुमार आरोग्यधाम में स्पांडिलाइटिस, साइटिका इत्यादि मेरूदंड के विकारों से ग्रस्त हजारों रूग्णों में कटिबस्ति के प्रभावी परिणाम पाए गए हैं तथा कइयों के ऑपरेशन तक टल गए हैं।

ग्रीवाबस्ति – कटि बस्ति चिकित्सा यदि ग्रीवा भाग (Cervical Spine) में की जाए तो उसे ग्रीवा बस्ति कहते हैं। यह चिकित्सा Cervical Spondylitis में अति उपयुक्त पाई गई है।

रूक्षस्वेद – इसके अंतर्गत बालुका (रेती) गर्म कर, उसकी पोटली बनाकर सेंकना, कोई बर्तन गर्म करके कपड़े से सेंकना आदि क्रियाएं समाविष्ट होती हैं।

पिंड स्वेद – इस चिकित्सा में विशेष प्रकार के साठेलाली चावल में वनौषधि मिलाकर उसे पकाया जाता है। बाद में उसी से मालिश भी की जाती है।

यह लकवा व पोलियो की विशेष व लाभकारी चिकित्सा है। इससे मासपेशियों में खून का प्रवाह बढ़ता है व नसों में ताकत आती है। इसके अलावा यह आमवात, फ्रोजन शोल्डर, कंपवात, संधिवात, मांसक्षय में भी उपयोगी है। मांसपेशीगत विकृति (Muscular Dystrohy) के कई रूग्णों में पिंड स्वेद से मांसपेशियों की शक्ति में वृद्धि होकर रूग्ण की हालत में काफी सुधार देखा गया है। कई रूग्ण जो सहारे से उठते-बैठते थे, वे भी इस उपचार से मांसपेशियों में ताकत आ जाने के फलस्वरूप स्वयं उठते-बैठते व अन्य क्रियाएं करते हुए पाए गए हैं।

पत्र पिंड स्वेद – इसमें विविध प्रकार की ताजी जड़ी-बूटियों के पिसे पत्तों को लेकर एक वस्त्र में पोटली बनाकर गर्म कर, अर्कपत्र, नीमपत्र कढ़ाई में एकत्र कर तथा इसमें वातनाशक तैल या सरसों के तैल को मंद आग पर पकाकर व उसकी पोटली बनाकर दर्द के स्थान पर 10-15 दिन सिकाई करनी चाहिए। इससे दर्द से तुरंत राहत मिलती है। यह विधि 8 से 15 दिन करनी चाहिए।

पिषिंचिल – गरम तेल की धारा रुग्ण के शरीर पर डालने से रुग्ण का स्नहेन के साथ-साथ स्वेदन भी होता है l

नाड़ी स्वेद – इस चिकित्सा का प्रयोग मुख्यतः संधिशूल, गृध्रसी ( Sciatica), कटिशूल (Backache). स्पांडिलाइटिस सभी वातजन्य वेदनाओं में किया जाता है।

अवगाह स्वेद – यह चिकित्सा सर्वसंधि शूल, कटिशूल, मांसपेशियों की कमजोरी आदि में उपयोगी पायी गई है।

वाष्प स्वेद – यह प्रक्रिया मुख्यतः मोटापा व वेदनायुक्त वात – व्याधियों में बहुत उपयोगी पायी गई है।

विरेचन कर्म – विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा जुलाब देना विरेचन कर्म कहलाता है। यह प्रधानतः पित्त दोष की चिकित्सा है परंतु कफ, वात विकारों में भी कहीं-कहीं विरेचन कर्म किया जाता है। लकवा, संधिवात, आमवात, स्पांडिलाइटिस, वातरक्त, गृध्रसी में यह क्रिया लाभकारी है।

बस्ति कर्म – इसका अर्थ है मेडिकेटेड एनिमा । संधिवात रोग में बस्तिकर्म की मुख्य चिकित्सा दी जाती है। सभी वातविकारों में इसके परिणाम चामत्कारिक रूप से मिलते हैं।

नस्यकर्म – विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा नाक में औषधि छोड़ना नस्यकर्म कहलाता है। इसका उपयोग लकवा, अर्दित (मुंह (का लकवा) आदि उर्ध्वजत्रुगत विकारों में करते हैं।

अग्निकर्म – अग्नि से तप्त किए हुए अनेक प्रकार के उपकरणों द्वारा शरीरगत व्याधि के नष्ट करने को अग्निकर्म कहते हैं। अग्निकर्म का प्रयोग संधि के विकार जिनमें सूजन हो जैसे गृध्रसी, मन्याशूल, कटिशूल आदि में सफलतापूर्वक किया जाता है। संधिग्रह में अग्निकर्म अत्यंत लाभकारी पाया गया है। जीकुमार आरोग्यधाम में AVN (Avascular Necrosis of Femur Head) में अग्निकर्म पर अनुसंधान किया जा रहा है, जिसके अच्छे परिणाम मिल रहे हैं।

धारा चिकित्सा

इसके अंतर्गत शिरोधारा, सर्वांगधारा, कटिधारा, शिरोधारा जैसे उपक्रम किए जाते हैं। इनमें विशेष औषधियुक्त तेल की धारा प्रभावित अंग पर गिराई जाती है।

शिरोवस्ति :- इस उपचार में सिर पर 1 चमड़े की टोपी पहनाई जाती है और उसमें तेल डालकर कुछ समय के लिए रखा जाता है। हाई ब्लडप्रेशर, मानसिक तनाव, डिप्रेशन, एन्जाइटी आदि में इसके उत्तम परिणाम मिलते है।

उपरोक्त उपक्रम सामान्यतः 7 से 14 दिन तक कराए जाते हैं। रोग की तीव्रता के अनुसार इसे 11 से 35 दिन तक और बढ़ाया जा सकता है। मालिश करीबन 21 से 28 दिन की जाती है।

जोडो से संबंधित गंभीर मरीज पर यह उपचार अस्पताल में भरती कर ही दिया जाता है। उस समय आहार भी शुद्ध आयुर्वेदिक निर्देशानुसार ही दिया जाता है। चिकित्सक की देखरेख में उपचार होने पर प्रभावी परिणाम मिलते है क्योंकि रोग की भिन्न-भिन्न स्थितियों में योजनाबद्ध तरीके से चिकित्सा दी जाती है। उपचार प्रारंभ करने पर उचित व्यायाम, फिजियोथेरेपी, जरूरी आराम, मनःशक्ति बढ़ाने के लिए ध्यान, योगासन, आदि सहायक उपचार किए जाते हैं।

आयुर्वेद की पंचकर्म चिकित्सा पद्धति रोगवृद्धि से तो संरक्षण देती है, रोग न हो इसके लिए भी यह चिकित्सा की जा सकती है। प्रतिबंधक उपायों के अंतर्गत अस्पताल में यह इलाज किया जाता है। इसके लिए अस्पताल में भरती हो सकते हैं। सामान्यतः 1 से 10 दिन तक यह प्रतिबंधक इलाज कराया जाता है।

पंचकर्म के साथ-साथ रोगी को विशिष्ट व्यायाम भी करना आवश्यक है। व्यायाम के अंतर्गत फिजियोथैरेपी व योगोपचार कराया जाता है।

किसी भी जोड़ में दर्द होने पर मन मुताबिक बाजारू दवा या किसी के द्वारा बताई हुई दवा कतई न खाएं बल्कि योग्य चिकित्सक से जोड़ो के दर्द के निदान के पश्चात उन्हीं से परामर्श लेकर चिकित्सा लें। आधुनिक चिकित्साशास्त्र में उपरोक्त व्याधियों में सिर्फ लाक्षणिक चिकित्सा करते हुए केवल वेदनाशामक औषधियों ही दी जाती है, जो कि अस्थायी उपचार है। जबकि आयुर्वेदिक उपचार पद्धति में औषधि व पंचकर्म द्वारा वात दोष की चिकित्सा की जाती है। इससे रोगी को वेदना इत्यादि लक्षणों में स्वयं प्रभावी लाभ मिलता है।

डॉ. जी.एम. ममतानी
एम.डी. (आयुर्वेद पंचकर्म विशेषज्ञ)

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